कैसे बनें आदर्श व्यक्तित्व के धनी

कैसे बनें आदर्श व्यक्तित्व के धनी



स्वामी विवेकानन्द का मार्मिक कथन है कि मनुष्य मानव धर्म का हार्द है मनुष्य का मनुष्य के प्रति तादात्म्य भाव, एक-दूसरे के प्रति संवेदनशीलता और नैतिक एवं चारित्रिक उज्जवलता। जो धर्म मनुष्य को दुर्गति, हीनता और चारित्रिक भ्रष्टता से मुक्त करता है, जो हर इंसान की आत्मा को तेजोदीप्त बनाता है, हर हृदय को परदु:खकातर और संवेदनशील बनाता है, उसे मानव धर्म कहा जा सकता है। मानव धर्म पूरी मनुष्यता के साथ धड़कने और एकाकार होने का गीत गाता है। इसीलिए प्राय: देखने में आता है कि श्रीकृष्ण के किसी वाक्य की व्याख्या बाइबिल में मिलती है तो जीसस के किसी अनमोल कथन की व्याख्या गीता में। कुरान की आयतें वेद में विभिन्न रूपों में गूंजती हैं तो वेद के जीवन-सूत्रों का सार कोई मौलवी व्यक्त करता है। कभी महावीर की वाणी जापान में सुनाई देती है तो जेन ध्यान पद्धति को भारतीय साधक अपनी साधना में शामिल करते हैं।

बुद्ध का वचन चीन के लोग जीवन शैली का अभिन्न अंग बनाते हैं तो लाओत्से के कहे हुए शब्द कबीर, रहीम, सूरदास समझाते हैं। यही तो मानव धर्म है दरअसल इस सृष्टि का निर्माण हुआ तो धरती पर न कोई जाति थी, न कोई धर्म था, न कोई वर्ण था, न कोई वर्ग था, न कोई भाषा थी और न कोई सीमा थी। इंसान ने ही कागज के नक्शे बनाकर समस्त मानव जाति को भिन्न-भिन्न जाति, वर्ग, वर्ण, सीमा, राष्ट्र एवं संप्रदायों में बांट दिया। 

इसी सन्दर्भ में गौतम बुद्ध ने कहा है कि उदार मन वाले विभिन्न धर्मों में सत्य देखते हैं। संकीर्ण मन वाले केवल अंतर देखते हैं । असल में, मनुष्य प्राणधारियों में श्रेष्ठ प्राणी है। उसकी श्रेष्ठता का आधार है आत्मिक गुणों की पहचान और उन तक पहुंचने की अभिलाषा। आज मनुष्य ने अनंत आकाश का पता लगाया है, अपरिमित भूमि की खोज की है और महासागरों की गहराइयों में डूबकियां लगायी हैं। वह पाताल तक पहुंचा है। 

उसने संपूर्ण प्रकृति को वैज्ञानिक आंख से आंका है, उसने अपने संपूर्ण जीवन को सुविधावादी नजरिए से देखा है, और ऐसा करते हुए वह अपनी जड़ों से, अपनी नींवों से दूर भी हुआ है। यही कारण है कि मनुष्य ने अपने आस-पास खड़े, अपने ही समान, अपने साधर्मी बंधु-बांधव को नहीं पहचाना है। मनुष्य की वास्तविक पहचान लिबास नहीं है, भोजन नहीं है, भाषा नहीं है और उसकी साधन-सुविधाएं नहीं हैं। वास्तविक पहचान तो मनुष्य में व्याप्त उसके आत्मिक गुणों के माध्यम से की जाती है। जीवन की सार्थकता और सफलता का मूल आधार व्यक्ति के वे गुण हैं जो उसे मानवीय बनाते हैं, जिन्हें संवेदना और करुणा के रूप में, दया, सेवा-भावना, परोपकार के रूप में हम देखते हैं। असल में यही गुणवत्ता बुनियाद है, नींव हैं जिस पर खड़े होकर मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बनाता है। जिनमें इन गुणों की उपस्थिति होती है उनकी गरिमा चिरंजीवी रहती है। गुणीजन सदा दूसरों की ही चिंता करते हैं, अपनी नहीं। उनमें दया होती है इसलिए उनकी भावना में मानवता भरी होती है। यही मानवता उनमें संवेदना की और मित्रता की पात्रता पैदा करती है। एक गुणी दूसरे गुणी से मिलकर गुणों को विकसित करता है जबकि वही निर्गुण को पाकर दोष बन जाता है। गुणों की पात्रता के लिए स्वयं को गुणी बनाना जरूरी है। नदियों का जल बहता है वह अत्यंत स्वादिष्ट होता है किंतु समुद्र को प्राप्त कर वही जल अपेय अर्थात् खारा बन जाता है। भारतीय संस्कृति का मूलाधार अनुभूतियां हैं। उसने सिद्धांत का निरुपण किया, परंतु उतने तक ही अपने को सीमित नहीं रखा। 

ज्ञान को अनुभूत किया अर्थात सिद्धांत को व्यावहारिक जीवन में उतारा। यही कारण है कि उसकी हस्ती आजतक नहीं मिटी। उसकी दृष्टि में गुण कोरा ज्ञान नहीं है, गुण कोरा आचरण नहीं है। दोनों का समन्वय है। जिसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता वही समाज में आदर के योग बनता है। इसलिए कहा गया है कि गुणा: सर्वत्र पूज्यंते-गुण की सब जगह पूजा होती है। कनफ्यूशियस की यह पंक्ति हमें आत्मावलोकन को प्रेरित करता है। आज का मनुष्य अपने ही स्वार्थ की पूर्ति चाहता है। लगता है जैसे स्वार्थ ने नींवों को खोखली करने की ठान रखी है उसी की आराधना में सब लिप्त हैं। यह जानते हुए भी कि हम गिरावट की ओर बढ़ रहे हैं, अपनी गति और मति को हम रोक नहीं पा रहे हैं। जीवन भार बन गया है। धनी-निर्धन, छोटे-बड़े सब दुखी हैं। इस स्थिति से उबरने का एक ही मार्ग है और वह यह है कि हम अपने आप को टटोलें, अपने भीतर के काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि कषायों को दूर करें और उसी मार्ग पर चलें जो मानवता का मार्ग है।

 हमें समझ लेना चाहिए कि मनुष्य जीवन बहुत दुर्लभ है, वह बार-बार नहीं मिलता। समाज उसी को पूजता है जो अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीता है। इसी से गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है -'परहित सरिस धरम नहीं भाईÓ। ऐसे ही भावों की प्रेरणा को लेकर हमें समाज को नई दिशा देनी है। दरअसल हमें हर पल इस बात का ध्यान रखना है कि असल में हम सब एक ही धागे से जुड़े हुए हैं। वह धागा न तो धर्म का है, न मजहब का है, न भाषा का है, न जातीयता का है, न सांप्रदायिकता का है। वह धागा है तो केवल इंसानियत का, मानवता का। बहती हुई नदियां, लहराता पवन और हमारी यह पावन धरा, आसमान में चमकते हुए चांद और सितारे, सूर्य का तेजे-ये सब प्रकृति की मनुष्य को अनमोल देन है लेकिन ये सब सांझा है।

मनुष्यता ने अब तक इन्हीं अनुभूतियों से समस्त विश्व को आलौकिक किया है और उसी से यह सृष्टि, यह संसार कायम है। जैसे-जैसे हम इन अनुभूतियों का विकास करते जाएंगे हमारा जीवन अधिक सार्थक और उपयोगी बनता जाएगा। संभवत: वही सच्ची मानवता भी है और जीने का सही तरीका भी।

टिप्पणियाँ