कविताएं
सुने होंगे गीत बसंत के कई
शरद की बात भी की होगी
है हेमंत भी उतना ही सलोना
रूबरू शायद नहीं.. यह रुत हुई होगी
सुबह हल्की धुंध में ढकी
पर शीत अभी दूर है
भली लगे तन पर जो
बहती शीतल पवन जरूर है
सहन हो सकती है धूप अब
क्यारियां खुद गयीं बगीचों में
हो रही पौध की तैयारी
बसंत की रौनक आखिर
हेमंत की है जिम्मेदारी
जल उठेगी जब कोने कोने
माटी के दीयों में शमा
मौसम बदल रहा है
कितना खूबसूरत युग-युग से
प्रकृति का चलन रहा है
जीवन बंटता ही जाता है
बाँट रहा दिन-रात हर घड़ी
खोल दिए अकूत भंडार,
युगों-युगों से जग पाता है
डिगता न उसका आधार !
शस्य श्यामला धरा विहंसती
जब मोती बिखराए अम्बर,
पवन पोटली भरे डोलती
केसर, कंचन महकाए भर !
जा सिन्धु में खो जाती हैं
जल राशियाँ भर आंचल में,
नीर के संग-संग नेह बांटती
तट हो जाते सरस हरे से !
जीवन बंटता ही जाता है
मानव उर क्यों सिमट गया,
उसी अनंत का वारिस होकर
क्यों न जग में बिखर गया !
नया नया सा लगा था सूरज
जाने कितने युग बीते हैं
जाने कबसे जलता सूरज,
आज सुबह जब ताका उसको
नया नया सा लगा था सूरज !
क्या जाने किस बीते युग में
गंगा की लहरों संग खेले,
आज अंजुरि में भर छूआ
याद आ गये लाखों मेले !
जीवन की आँखों में झाँका
अपना ही प्रतिरूप झलकता,
एक सहज लय में गुन्थित हो
श्वासों का यह ताँता ढलता !
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