पांच राज्यों के चुनाव नतीजों में छिपा संदेश

विशेष रिपोर्टपांच राज्यों के चुनाव नतीजों में छिपा संदेश

- जगदीश चावला

अभी हाल ही में सम्पन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे उम्मीदों के अनुरूप ही सामने आए हैं। मगर उसमें कुछ संदेश भी छिपे हुए हैं। असम में पहली बार भाजपा का कमल खिला है तो तमिलनाडु में जयललिता और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने दमदार तरीके से अपनी वापसी को दोहराया है। केरल में वाममोर्चा अपनी सरकार बना रहा है तो कांग्रेस सिर्फ पुडुचेरी की जीत पर ही अपना संतोष प्रकट कर सकती है। इन नतीजों का असर राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ना तय है। इसमें जहां भाजपा को अपनी रणनीति बदलने का लाभ मिला है वहीं पर कांग्रेस को काफी निराशा झेलनी पड़ी है।

अभी तक यह माना जाता था कि भाजपा सिर्फ उत्तर भारत की या अमीरों की पार्टी है। इस पार्टी पर लगा यह टैग भी उतर गया है। खासकर असम में, जहां चाय बागान के मजदूरों व श्रमिकों के साथ उसका संवाद काफी फायदेमंद रहा है। यहां अभी तक उपरी इलाकों में ‘अली -बुली’ ही तय करते रहे हैं कि राज्य में किस की सरकार बनेगी और यह हमेशा कांग्रेस की झोली में ही जाता रहा है। लेकिन अब चुनाव के नतीजों ने इस धारणा को झुठला दिया हे कि स्थानीय व क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा को अपने लिए खतरा मानती हैं या इसका सहयोगी बनने से कतराती हैं। भाजपा के साथ दोस्ती साधने में असम गण परिषद को फायदा हुआ है। असम में भाजपा के मुख्यमंत्री पद के जीते उम्मीदवार सर्वानंद सोनोवाल अविवाहित हैं लेकिन यहां उनके महत्व को नहीं नकारा जा सकता। असम में भाजपा की जीत दिल्ली व बिहार से मिली हार की हताशा को भूलने का सबब भी बन सकते हैं। 
तमिलनाडु में जयललिता का जादू अब भी बरकरार हैं, जिसके चलते लोग आज भी जयललिता के साथ-साथ अन्नाद्रमुक के संस्थापक एमजी रामचन्द्रन को याद करते है। जयललिता को विगत् में भले ही आये से ज्यादा संपत्ति अर्जित करने के मुकदमों से दो चार भी होना पड़ा है लेकिन इनकी लोक-लुभावन नीतियों ने फिर से इन्हें मुख्यमंत्री की गद्दी सौंप दी है। इस राज्य में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने वाली द्रमुक ;डीएमकेद्ध को मुंह की खानी पड़ी है जिससे यह साफ दिखने लगा है कि यहां के लोगों का राहुल गांधी पर भरोसा नहीं है। द्रमुक के नेता करूणानिधि भी मानते है कि एक्जिट पोल्स उनके हक में थे लेकिन उनके बेटो की कलह ने सारा खेल बिगाड़ दिया। 

केरल में वामपंथी दलों की वापसी भी उनके लिए एक संजीवनी के समान है। देश में लगातार हार के कारण जहां वामपंथी खेमे में अपनी प्रासंगिका को बचाये रखने का सवाल था, वह केरल में पूरी हो गई है। वामदलों ने 2004 के लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था लेकिन 2011 में केरल और पश्चिम बंगाल दोनों राज्य वामदलों के हाथ से निकल गए थे। सिर्फ 2013 में त्रिपुरा के चुनाव में उनकी सत्ता बरकरार रही। केरल में पहली वामपंथी सरकार ईएमएस नंबूरदरीपाड ने बनाई थी जो 1957 से 1959 तक राज्य के वामपंथी मुख्यमंत्री रहे थे।

पश्चिम बंगाल में लम्बे समय तक वामपंथी ‘ाासन को उखाड़ने का काम तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी ने किया था जिनकी पार्टी अब फिर से जीतकर इस राज्य को बेहतर बनाने का संकल्प लेकर आई है। कांग्रेस सिर्फ केन्द्र ‘ाासित राज्य पुडुचेरी में अपनी जीत से थोड़ा संतोष कर सकती है। लेकिन ये चुनाव कांग्रेस को आईना दिखला रहे हैं कि विभिन्न राज्यों में उसका जनाधार अब सिमटता जा रहा है और भाजपा का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा अब परवान चढ़ता नज़र आता है।

वर्ष 1914 में चुनाव की तस्वीर उल्टी थी। तब कांग्रेस 14 राज्यों- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, अरूणाचल प्रदेश, असम, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, जम्मू कश्मीर, झारखंड, केरल और महाराष्ट्र में अपनी दुंदभी बजा रही थी। लेकिन अब उसके हाथ से कई राज्य निकल चुके है। दूसरे ‘ाब्दों में कहें तो अब कांग्रेस का ‘ाासन सिर्फ 7 प्रतिशत की आबादी क्षेत्र पर रह गया है जबकि भाजपा और उसके गठबंधन की सरकारों का 43 प्रतिशत आबादी क्षेत्र पर कब्जा हो चुका है। जमीन भी अब लगातार खिसकती जा रही है और दूसरी तरफ भाजपा के साथ क्षेत्रीय दलों की ताकत में इजाफा हो रहा है। लोकतंत्र में बेशक हार और जीत को अलग नहीं किया जा सकता। लेकिन इन पांच राज्यों के चुनावी नतीजों ने यह साफ कर दिया है कि अब विजेता पार्टीयों को अपने वादे और इरादे पूरे करने चाहिए जिसके लिए मतदाताओं ने अपना स्पष्ट जनादेश भी दिया है।

चुनावी विश्लेषकों का कहना है कि असमिया आंदोलन में सक्रिय असम गण परिषद और जन जातियों से जुड़ी बोर्डो पीपुल्स फ्रंट से गठबंधन असम में भाजपा के पक्ष में गया है जिसने आक्रामक तरीके से यहां बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे को उठाकर अपनी जीत का रास्ता साफ किया।

पश्चिम बंगाल की राजनीति में लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी कर ममता बनर्जी ने जो इतिहास रचा है उसका श्रेय बूथ स्तर पर उनके प्रबंधक और मां, माटी, मानुष जैसे नारों को प्राथमिकता देना ही है। टिकट बंटवारे में भी ममता दीदी ने महिलाओं, युवा चेहरों और अल्पसंख्यक समुदाय का खासा ख्याल रखा और उनकी यह रणनीति सफल भी हुई। हालांकि 2016 में नारद स्टिंग आपरेशन ने ममता सरकार की मुश्किले बढ़ा दी थीं लेकिन विपक्षी दल अब सारदा-नारद जैसे मुद्दों का लाभ लेने में कामयाब नहीं रहे।

तमिलनाडु मंे अम्मा यानी जयललिता की दरियादिली लोगों को खूब पसंद आई। जिसकी वजह से वह अब छटी बार वे इस राज्य की कमान संभाल चुकी है। इनकी कल्याणकारी योजनाओं में अम्मा कैंटीन, अम्मा औषधालय जैसी योजनाओं को गरीबों ने काफी पसंद किया है। पहले अम्मा ने यहां राशन कार्ड धारकों को 20 किलो चावल, मुफत मिक्सर ग्राइंडर, दुधारू गाय, बकरियां और महिलाओं को मंगलसूत्र के लिए चार ग्राम सोना दिया था। अब उन्होंने मंगलसूत्र के सोने को 8 ग्राम का करने का जो वादा किया वह महिलाओं को काफी पंसद आया। वैसे जयललिता का जन्म 24 फरवरी 1948 को मैसूर स्टेट के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। इन्होंने विख्यात अभिनेता एमजी रामचंद्रन के साथ 30 फिल्मों में काम किया। 1982 में यह अन्ना द्रमुक की प्रचार सचिव बनाई गई। 1987 में यह प्रतिपक्ष की पहली महिला नेता बनीं। इन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों में दो बार अपना पद भी छोड़ना पड़ा लेकिन अब इनकी जीत से विपक्षी खेमें में काफी निराशा है।

इसमें ‘ाक नहीं कि जयललिता और ममता बनर्जी की जीत से अब केंद्र में इनकी धमक का बढ़ना तय है और ये दोनों राज्यसभा में अटके पडे़ जी.एस.टी समेत कई मुद्दों पर अपना समर्थन मोदी सरकार को दे सकती है। ममता तो पहले ही यह वायदा कर चुकी है कि वह अब राज्यों का विकास न रोकते हुए जीएसटी का समर्थन करेगी।

वैसे राज्यों के चुनाव हमेशा स्थानीय मुद्दों पर लडे़ जाते है, राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं। और इस दृष्टि से जीती पार्टियों को यह साबित कर दिखाना होगा कि उन्होने जो वायदे राज्यों की जनता से किए हैं वे कब और कैसे पूरे होंगे? वायदे पूरे करना उनके लिए अग्निपरीक्षा भी हो सकती है। लेकिन यदि केंद्र से इनका तालमेल बना रहा तो असम के साथ-साथ बाकी राज्यों को मिलने वाली अनुदान की राशि में बढ़ोत्तरी भी हो सकती है जिसका उपयोग राज्यों की बेहतरी के लिए किया जा सकता है।

केंद्र में मोदी सरकार को काबिज हुए अब दो साल हो जाएंगे। इस दौरान मोदी सरकार की कोशिश है कि समाज के सबसे नीचे के तबके का विकास हो, भ्रष्टाचार खत्म हो और देश के उद्योग धंधे पारदर्शी व सहज हों। कांग्रेस के ‘ाासन काल में केंद्र द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी का एक बड़ा हिस्सा हमेशा से बिचैलियों और भ्रष्टाचारियों की जेब में जाता था। लेकिन अब मोदी सरकार इस पर लगाम लगाने का काम कर रही है। मोदी का जादू अभी खत्म नहीं हुआ है और न ही वे कोई चूके हुए तीर हैं। इसके विपरीत कांग्रेस ने अपने ‘ाासन काल में जो घपले और घोटाले किये वे भी अब परत दर परत सामने आ रहे हैं जिनसे लगता है कि फिलहाल कांग्रेस का भविष्य किसी क्षेत्रीय पार्टी की तरह ही रह जायेगा।

कांग्रेस की कुंडली में और कितनी फजीहत लिखी है यह इसी से पता चलता है कि अपने खिसकते जनाधार को देखकर कई कांग्रेसी नेता अब सोनिया गांधी को साफ-साफ कहने लगे हैं कि आत्ममंथन का समय गुजर गया है। अब कुछ करने का समय है जो नज़र आने वाले बदलाव को भी दिखला सके। कांग्रेस अब इसी चिंता में डूबी दिखलाई देती है कि जब उसकी गलत नीतियों, बेअसर अपीलों और खराब नेतृत्व ने उसे असम, पश्चिम बंगाल, और तमिलनाडू में कहीं का नहीं रहने दिया तो वह आगे चलकर उत्तर प्रदेश, हिमाचल, गुजरात, उत्तराखण्ड, गोवा और पंजाब के चुनाव में क्या कर पाएगी। इधर क्षेत्रीय दलों के बनाए रिकार्ड और भाजपा से बढ़ती उनकी नजदीकियों ने भी कांग्रेस की चिंताए बढ़ा दी है।

इन पांच राज्यों में जो राजनैतिक दल जीते हैं उनके सामने विपक्षी दलों का धरना-प्रदर्शन जारी रहेगा। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि इन राज्यों के मुख्यिा अपने प्रदेश को विकास की किस पायदान तक ले जाते हैं।
वैसे यह बात स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं है कि इस चुनाव में भाजपा को भले ही आशातीत सफलता न मिली हो लेकिन पूरा परिणाम नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए अनुकूल है। भाजपा विरोधी राजनीति में कांग्रेस जैसे प्रमुख घटक का मटियामेट होना सिर्फ तत्कालिक ही नहीं है बल्कि यह भविष्य के लिए भी भाजपा के लिए मोरचेबंदी के चरित्र में आया एक बदलाव भी है।

यह लोकतंत्र के लिए बेहतर होगा कि केन्द्र और राज्य सरकारे मिलकर देश को गरीबी, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के चंगुल से निजात दिलाएं। सरकारे तो बनती बिगड़ती रहेंगी लेकिन देश का पैसा देश के विकास के काम आए और वह किन्हीं राजनीतिबाजों की जेब में न समा जाए। इसकी निगरानी करना भी विजेता पार्टियों का एक लक्ष्य होना चाहिये। यदि किसी राज्य में पानी-बिजली, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा इत्यादि की कोई समस्या है तो उसे भी तत्काल दूर किया जाना चाहिए ताकि मतदाताओं को लगे कि सरकारें वही काम कर रही हैं जिसके लिए उन्हें लोगों का जनादेश मिला है। वैसे भी इस चुनाव का संदेश यही है कि जो सरकार काम करेगी वही टिक पाएगी और जो निकम्मापन दिखलायेगी वह उखाड दी जाएगी।


असम (कुल सीट-126)
बीजेपी ः 86 (़59)
कांग्रेस ः 26 (-52)
एआईयूडीएफ ः 13 (-5)
अन्यः 1 (-2)
प. बंगाल (कुल सीट-294)
टीएमसी ः 211 (़27)
लेफ्ट कांग्रेसः 84 (-20)
बीजेपी ः 3 (़3)
अन्य ः 4 (-2)
तमिलनाडु ः
एआईएडीमके ः 134 (-16)
डीएमके ः 89 (़66)
कांग्रेसः 8 (़3)
अन्यः 01(-55)
केरल ः
लेफ्ट फ्रंटः 85 (़17)
यूडीएफ ः 47 (-25)
बीजेपीः 01 (़1)
अन्यः 7 (़7)
पुडुचेरी ः
कांग्रेस और डीएमकेः 17 (़8)
एआईएनआरसी ः 8 (-7)
एआईएडीएमके ः 4 (-1)

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