सिर्फ एक ‘शख्स’ नहीं, ‘शक्सियत’ भी बनें

सिर्फ एक ‘शख्स’ नहीं, ‘शक्सियत’ भी बनें

- जगदीश चावला

अभी पिछले दिनों हरिद्वार में मेरा सामना एक ऐसे व्यक्ति से हुआ जो अपने मठ के गुरू की तारीफ़ में इतना कुछ कहे जा रहा था कि मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उसे क्या कहूं? उसने बताया कि मेरे गुरू एक ऐसी ‘ाक्सियत हैं जिन्हें आमंत्रित करने के लिए बडे-बडे़ साहूकार और बिल्डर उसके दरवाजें पर खडे़ रहते है। वे उन्हें अपनी ए.सी. कारों में लाते ले जाते हैं और मोटी दान-दक्षिणा देकर विदा करते है। हमारे गुरू महंत का रहन-सहन भी वैभवशाली है, तभी तो कॉलेज के लड़के-लड़कियां तथा अन्य लोग स्टेशनों पर, पार्क में या फिर प्रवचन-स्थल पर उनके साथ अपनी सेल्फी तक खींचते नजर आते है।
       ऐसे में मैंने उस व्यक्ति से सहजता के साथ यह पूछा कि तुमने या तुम्हारे महंत ने क्या कभी कबीर का अध्ययन किया है? तो इस पर वह बड़ी बेशर्मी के साथ बोला कि कबीर तो एक मामूली शक्स था, और वे प्रापटी-डीलिंग का काम भी करते हैं।
       यह सुनकर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उससे कहा कि तुम्हारे गुरू कैसे हैं, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन तुम्हारी इस चापलूसी से मुझे लगता है कि जैसा गुरू हो उसे वैसा ही चमचा मिल जाता है। जब तुम्हें कबीर जैसी ‘ाक्सियत का ही पता नहीं है तो तुम दुनियां को अपने बाहरी संसाधनों और दिखावे से कब तक भरमाते रहोगे? यह सुनकर वह ‘ाक्स थोड़ा संजीदा हुआ तो मैनें उसे समझाया कि कबीर बेशक एक मामूली ‘ाक्स थे। काशी के लहरवाला तालाब पर मिले उस बालक को नीरू और नीमा नाम के जुलाहे ने पाला-पोसा था। लेकिन अपनी सादी सी जिंदगी के साथ भी वह ऐसी बड़ी हस्ती बन गये कि आज उनकी गणना पहुंचे हुए संतों में की जाती है। वे अनपढ़ थे, लेकिन आज उनकी काव्य रचनाओं को बडे़ बडे़ विश्वविद्यालय तक नकारने का दम नहीं रखते। क्योंकि उनकी वाणी बेबाक और सीधी हथौडे़ की धार जैसी थी। वे जो कुछ कहते थे उसमें ज्ञान और भक्ति का अनुपम संजोग रहता था। वे हिन्दु और मुस्लिम समुदाय के पाखंडों पर जमकर प्रहार करते थे लेकिन उनसे यह भी कहते हैं कि ‘हम सब एक ही ईश्वर की औलाद है और इसे हिंदु और मुसलमान जैसी धाराओं में मत बांटिए’’। अगर तुम्हें भी कबीर जैसा महान बनना है तो पहले उनका साहित्य पड़ो। तब तुम्हें पता चलेगा कि कबीर क्या थे। आदमी दस पैसे की हांडी लेता है, तो उसे भी कई बार ठोक-बजा कर खरीदता है। तुम तो पूरे जीवन के लिए गुरू चाहते हो तो फिर अपने गुरू का आचरण क्यों नहीं परखते? दुनियां में ऐसे अनेक लोग हैं जो किसी न किसी को अपना आदर्श मानने को आतुर रहते है। लेकिन अज्ञानतावश वे अपने उस आदर्श के स्याह पक्ष को भी उजला मान लेते है। दार्शनिक नीत्शे का कहना है कि यदि आदर्श सही हो, तो जीवन सहज और सुन्दर हो जाता है। पर हमसे गलती ये होती है कि हम अपने किसी भी आदर्श को हवा-हवाई के तौर पर चुनते हैं और दिन रात उसी के कसीदे पढ़ने में लग जाते है। इसीलिए हम कोई बड़ी  शख्सियत भी नहीं बन पाते है।
मेरा मानना है कि कई व्यक्ति अपने आपको किसी हैंडसम मॉडल फिल्म एक्टर, करोड़पति या सफल कारोबारी इत्यादि के रूप में देखने का ख्वाहिशमंद होते हैं या फिर चाहते हैं कि लोग उन्हें एक ताकतवर और प्रोफेशनल के रूप में याद रखें। पर यह कोई नहीं चाहता कि वे एक ‘ाख्स से ‘ाक्सियत कैसे बनें। शख्स  तो मर जाते है लेकिन शक्सियतें सदियों तक लोगों के दिलों में अमर रहती है।
       इतिहास बताता है कि राजा सोलोमन की 700 पत्नियां और 300 रखैलें थी। उसके पास धन दौलत की भी कमी नहीं थी। लेकिन वह ऐसी शख्सियत नहीं बन पाया जिसे चरित्रवान के तौर पर याद रखा जाए। इसके विपरित दुनियां में कई ऐसे लोग भी हुए है जिन्होंने अपनी मेहनत, लगन, पुरूषार्थ ईमानदारी और न्यायप्रियता की बदौलत एक अच्छी शख्सियत का खिताब हासिल किया है।
       अब्राहम लिंकन बचपन में जूते सिलते थे लेकिन बाद में अपनी मेहनत से वे अमेरिका की ऐसी बड़ी शख्सियत बन गए , रजनीकांत कंडैक्टर हुआ करते थे। लेकिन अब अपने बेजोड़ अभिनय की वजह से लोग उन्हें भी एक महान ‘ाक्सियत कहते है। महान फुटबाल प्लेयर लियोनल मैसी कभी फुटबाल ट्रेनिंग की फीस भरने तक के मोहताज थे और उन्होंने फीस भरने के लिए चाय सर्व करने का काम भी किया, लेकिन अब उनकी गिनती भी जानी-मानी हस्ती में होती हैं।
       अगर साहित्य की बात करें तो शक्सपीयर, गालिब, प्रेमचंद, गोर्की इत्यादि अनेक साहित्यकारों की गिनती में आती है] उन्होंने कितनी दुश्वारियां झेलीं यह कोई नहंी जानता। 11 मई 1912 को समराला में जन्में ओर 18 जनवरी 1955 को लाहौर में खाकनशी हुए सआदत हसन मंटो भी भारतीय उपमहाद्वीप के ऐसे समर्थ कहानीकार थे कि जिनकी ख्याति और प्रासंगिता आज भी कायम है। वे अच्छी और बुरी दोनों तरह की कहानियां लिखते थे जिन्हें पढ़कर कभी उनके प्रशंसकों का दिल उनका मुंह नोचने की सोचता था तो कभी उनका मुंह चुमने को बेताब हो जाता था। लोग उनकी फाकेमस्ती को देखकर उन्हें पागल और सनकी तक भी कहते थे। लेकिन उर्दू साहित्य को उन्होंने जिस तरह से अपनी कहानियों द्वारा समृद्ध किया उसके आधार पर आज कई विद्वान भी कहते हैं कि मंटों जैसा कोई दोबारा पैदा नहीं हो सकता। वे फिल्म और रेडियों के पटकथा लेखक और पत्रकार थे। उनकी लिखी कहानियों यथा- ‘हतक’, नया कानून, खोल दो, टोबा टेक सिंह, टिटवाल का कुत्ता, खुदा की कसम, मैं कहानीकार नहीं जेबकतरा हूं, स्याह हाशिए, ठंडा गोश्त, और लाइसेंस आदि में जिस तरह से उन्होंने अपने समय के दबे-कुचले और समाज की ठोकरों से विकृत चरित्रों का निर्माण किया, उससे गोर्की के लोअर डेप्थ्स के चरित्रों की याद आना स्वाभाविक है। फर्क सिर्फ इतना है कि गार्की के लिए लोगों ने अजायबघर बनवाए, उनकी मूर्तियां स्थापित की नगर बसाए और हमने मंटों पर मुदकमें चलाए, उसे भूखा मारा, उसे पागलखाने तक पहुंचाया और आखिरकार उसे  अपना दोस्त मानने पर विवश कर दिया।
       कहते है कि एक बार मंटों ने अपनी एक कहानी एक फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर को बेच दी थी जिसके लिए उसे पांच सौ रूपये नगद मिले थे। तभी उन्होंने एक टेलर मास्टर अब्दुल गनी की दुकान पर अपना एक सूट सिलने की ताबीद की। अब्दुल गनी ने मंटो को सूट सिल कर दे दिया लेकिन उनकी सिलाई उधार रही। जब कई माह तक मंटो उसका उधार नहीं चुका पाए तो एक दिन कश्मीरी गेट के पास अब्दुल गनी ने उनका कालर पकड़ लिया और उन्हें काफी खरी-खोटी सुनाई। पर दूसरे ही क्षण अब्दुल गनी ने उनसे कहा कि ये ‘हतक’ कहानी तुमने लिखी है? तो इस पर मंटो ने कहा, ‘हां मैनंे लिखी है तो क्या हुआ? तभी अब्दुल गनी ने एक मुस्कराहट के साथ उनका गिरेबान छोड़ दिया और कहा, जा तेरे उधार के पैसे मैनें माफ किए।’’ बाद में वही टेलर मास्टर पाकिस्तान चला गया और मंटों की लिखी कहानियों को इज्जत के साथ सहेजता रहा। जब मंटो का निधन हुआ तब भी उनके कई प्रशंसकों ने अपना खाना तक नहीं खाया। इससे पता चलता है कि उर्दू-साहित्य में मंटों की हैसियत एनटोन चेखव, विक्टर हयूगो और गोर्की से कम नहीं थी।
और यदि राजनीति की बात करें तो इस क्षेत्र में भी ऐसी कई हस्तियां हैं जिन्हें उनकें महान व्यक्तित्व के कारण हम भुला नहीं पाते। इंदिरा गांधी की तरह भले ही कुछ लोग पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की खामियों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करें लेकिन वे भी इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि राजनीति में ममता बनर्जी का कद किसी बड़ी शख्सियत  से कम नहीं है।
       5 जनवरी 1955 को कोलकाता में जन्मी ममता जहां इस्लामिक इतिहास में स्नातकोत्तर तथा कानून की डिग्री हासिल किए हैं, वहीं पर उनकी पहचान भी लोगों मंे ‘दीदी’ के जैसी है। वह रविन्द्र नाथ टैगोर से प्रभावित हैं और हमेशा एक साधारण सी सफेद साड़ी और सूती झोले के साथ नज़र आती है। इन्होंने अपना राजनैतिक करियर कांग्रेस से ‘ाुरू किया था और जब यह छात्रा थी तो इन्होंने लोकनायक जय प्रकाश नारायण की गाड़ी के बोनट पर चढ़कर तत्कालिन निकम्मी सरकार के खिलाफ अपना विरोध प्रकट किया था। कांग्रेस छोड़ने के बाद इन्होंने 1997 में अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की और साम्यवादी सरकार को हरा कर पश्चिम बंगाल की पहली मुख्यमंत्री बनी। मां, माटी और मानुष के नारे से अपने प्रशंसकों का दिल जीतने वाली ममता बनर्जी देखने में भले ही सामान्य लगती हो लेकिन समय-समय पर कभी वह ‘ाबनम तो कभी ‘ाोला भी बनी दिखलाई देती है। इस बार फिर से ममता ने अपनी भड़काउ राजनीति से लेकर दोबारा प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने का श्रेय हासिल किया है। यह ममता दीदी ही है कि जिन्हें 34 साल से सत्ता पर काबिज रही साम्यवादी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए लोग उन्हें लौह-महिला भी कहते हैं। किसानों, मजदूरों व अल्पसंख्यको की हिमायती रही ममता बनर्जी में कोई बात तो ऐसी है जिससे उनके विरोधी भी उन्हें बंगाल की शेरनी और अच्छी राजनैतिक कहा जाता है यह उनसे बेहतर और कोई नहीं जानता।
       कहना गलत न होगा कि बनना कोई आसान काम नहीं है, पर यह उतना मुश्किल भी नहीं है। यदि आपमंे देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने का माद्दा है तो अपनी क्षमताओं को आगे लाइए और फिर जिस क्षेत्र में आप कार्यरत हैं वहां अपने काम और व्यवहार को इतना बेहतर बनाएं कि लोग आपको भी औरों से अलग और एक शक्सियत के जैसा समझने लगें। इस बारे में देश को पहली आइपीएस महिला पुलिस अफसर और अब पुडूचेरी की उपराज्यपाल बनीं किरण बेदी अपनी 3 एम थ्योरी पर अमल करने की सलाह देती है। पहला एम, जो आप करते हैं उसमें ‘मास्टर’ यानी माहिर बनें। दूसरा एम, अपने समाज के विश्वासपात्र ‘मेंबर’ यानी सदस्य बनिए और तीसरे एम में अपनी जिंदगी को उच्च ‘मीनिंग’ यानी मायने से संवारिए।
याद रखें कि सिर्फ खाने-पीने और मौजमस्ती करने से ही आदमी कभी बड़ी शक्सियत नहीं बन सकता। इसके लिए उसे अपने आपको कभी-कभी अवांछित कष्टों की भट्टी में तपाना भी पड़ता है।


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