फुटपाथों पर से अवैध कब्जे कब खत्म होंगे?

फुटपाथों पर से अवैध कब्जे कब खत्म होंगे?

अपनी पढ़ाई खत्म करने के बाद जब मैं दिल्ली आया था, तब इतनी आबादी नहीं थी जितनी आज है। उस समय मैंने 110 ₹ की नई साइकिल खरीदी थी और वह भी 10₹ महीने के किश्तों पर मैं उसी साइकिल अपने यार दोस्तों के साथ कभी कभी इंडिया गेट तो कभी कुतुब मीनार के नजारे देखने भी जाता था।
दिल्ली में जब ट्रॉम चलती थी तो दो आने की टिकट लेकर मैंने चांदनी चैक के मंजर भी देखे हैं जहां दुकानों जहां दुकानों के आगे बने फुटपाथ पर कई जिंदगियों का बसेरा रहता था। लोग ट्रॉम निकल कर यद्यपि उन फुटपाथों पर सुस्ताते नहीं थे लेकिन चलते-फिरते किसी से छू जाने का रोमांच दूर तक उनका पीछा करता था। यहां पाकिस्तान से निर्वासित होकर आए कई लोग दिन भर इन्हीं फुटपाथों के ईर्द-गिर्द खडे़ खडे़ छोटा मोटा सामान यथा-बच्चों की रिबन, मोजे़, रुमाल, और साबुन के झाग का बुलबुला बनाने वाले खिलौने आदि बेचते थे। ऐसे में रह-रह कर बडे़ दुकानदारों राहगीरों और पुलिस की झिड़कियां खाकर भी कई खोमचे वाले अपने-बीवी-बच्चों के लिए खाने का जुगाड़ कर लिया करते थे। लेकिन अब दृश्य बदल गया है। जिन फुटपाथों पर कभी सुन्दर और रोमांचक फिल्मी गाने फिल्माये जाते थे या जहां पर कभी कुछ अमीरजादे गले में पट्टा बांधे अपने अल्शेसियन और डोबर मैन कुत्तों के साथ घूमा करते थे, अब वही फुटपाथ अतिक्रमण की वजह से आम लोगों, खासकर पैदल चलने वालों के लिए जी का जंजाल बनते जा रहे है। दिल्ली में ऐसे कई बाजार हैं जहां अब मैं कार लेकर भी  का मज़ा नहीं ले पाता, क्योंकि अब हर जगह के फुटपाथ
अतिक्रमण की वजह से आम लोगों, खासकर पैदल चलने वालों के लिए जी का जंजाल बनते जा रहे है। दिल्ली में ऐसे कई बाजार हैं जहां अब मैं कार लेकर भी शॉपिंग का मजा नहीं ले पाता क्योंकि अब हर जगह के फुटपाथ पर हो रही अवैध कब्जेदारी ने पैदल चलने वालों तक का जीना मुहाल कर दिया है। इसमें शक नहीं कि सड़कों के किनारे सरकारी एजेंसी की ओर से बनाए गए फुटपाथ बेशक पैदल चलने वालों की सुविधाओं के लिए है। लेकिन सच्चाई ये है कि सड़कों के किनारे बने फुटपाथ भी अब लुप्त होते जा रहे है। इस समय आप दिल्ली में कहीं भी चले जाएं तो आपको हर जगह फुटपाथों पर अवैध कब्जों की भरमार ही दिखलाई देगी। चांदनी चैक, दरियागंज, रोहिणी, नरेला, बवाना, किंग्जवे कैम्प, मुखर्जी नगर,  वजीरपुर, संतनगर, आजादपुर, सुलतानपुरी, जहांगीरपुरी, लक्ष्मी नगर, अवंतिका, हौज़खास, सदर बाजार, रानीबाग, मालवीय नगर, लाजपत नगर, सरिता विहार, आदि इलाकों में  ही कोई ऐसा फुटपाथ दिखलाइ्र देगा जो पैदल चलने वालों के लिए सुरक्षित हो, अन्यथा सभी फुटपाथों पर कहीं मार्बल बेचने वालों, कही भवन निर्माण सामग्री बेचने वालों, कहीं रेहड़ी-पटरी वालों, कहीं मोटर गैराज और वर्कशाप चलाने वालों, कहीं बांस की सीढ़िया बेचने वालों, कहीं रिक्शा और ठेले वालों और कहीं चाय और मिठाई बेचने वालों ने ऐसा कब्जा जमा रखा है कि जैसे ये सारे फुटपाथ उनके बाप-दादा की दी हुई जागीर हों।
      यह भी देखा गया है कि अवैध कब्जों की भेंट चढे़ फुटपाथों पर बाकायदा कई दुकानदारों ने अपने सामान को इस कदर आगे फैलाना आरंभ कर दिया है कि कोई भी वृद्ध या बीमार राहगीर वहां से निकल ही नही सकता और यदि वह निकल कर सड़क पर आए तो यहां वाहनों की आवाजाही में उसकी जान हमेशा सांसत में पड़ी रहती है। कई जगहों पर दुकानदारों ने अपनी दुकान के विज्ञापन स्टैंड लगा रखे हैं तो कईयों ने अपनी दुकानों के आगे ही अपने वाहनों को खड़ा करके जनता की परेशानियां बढ़ा दी हैं। दिल्ली का चांदनी चैक हो या कानपुर की मेस्टन रोड़, यहां तो कई लोगों ने बरामदे के उपर अपनी पहली मंजिल भी फुटपाथों पर बना ली है। ऐसे में आम राहगीरो का यह सोचना वाजिब है कि जो फुटपाथ आम जनता की सुविधा के लिए बनें है वे अवैध कब्जाधारियों की मिलकियत क्यों बनते जा रहे है? क्या प्रशासन को इसका पता नहीं है? या वह भी सब कुछ देखकर अंधा और बहरा बना हुआ है?
      इस सबंध में जब मैंने कुछ लोगों से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि नगर निगम, पीडब्ल्यू डी और पुलिस को ऐसे अतिक्रमण की पूरी जानकारी रहती है लेकिन ये कोई कारवाई नहीं करते। अगर करते भी हैं तो वे बस खानापूर्ति करके चले जाते हैं। फुटपाथों पर अवैध कब्जे का कारोबार इन्हीं के संरक्षण और मिलीभगत से होता है क्योंकि इन सबको अवैध कब्जों से मोटी कमाई होती है। कई पीड़ित लोगों ने यह भी बताया कि हम जब भी इस बारे में संबधित अधिकारियों से बात करते हैंं तो वे कोई आश्वासन के अलावा कोई कारवाई करने की जहमत नहीं उठाते जिससे अतिक्रमण करने वाले के हौंसले बुलंद हो जाते हैं। यह भी देखा गया है कि जब नगर निगम कोई दस्ता अतिक्रमण हटाने आता है तो उसकी सूचना पहले से ही कब्जा करने वालों को मिल जाती हैं। ऐसे में वे अपना सामान कुछ देर के लिए हटा लेते हैं और अतिक्रमण विरोधी दस्ते के जाते ही वे फिर से फुटपाथों पर आ जाते है। इसका कारण तहबाजारी और कब्जा करने वालों से मिलने वाली कमाई है जिसे पुलिस के एक अदना सिपाही से लेकर जनप्रतिनिधि तक उगाहने की फिराक में रहते है।
      मजे की बात यह है कि दिल्ली में फुटपाथ की कीमत भी इलाके के हिसाब से तय होती है। जैसे नरेला में अनाज मंडी से लेकर रामदेव चैक तक फुटपाथ नहीं है तो भी यहां रेहडी पटरी वालों से हर महीने एक हजार से लेकर दो हजार रूपये तक सरकारी बाबूओं की जेब में समा जाता है। पाश इलाकों से की गई अवैध वसूली की रकम दो हजार से लेकर 5 हजार रूपये मासिक लिया जाना तो सरकारी कारिदें अपना बोनस ही समझते है। जब दिल्ली में फुटपाथों को लेकर ऐसी अंधेरगर्दी मची हो तो देश के बाकी बडे़  का क्या हाल होगा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। 
      इसे एक विडम्बना ही कहना होगा कि जहां हमारा संविधान हर नागरिक को पूरे देश में मुक्त रुप से विचरण करने के मूल अधिकार की गारंटी देता है वहीं पर  की नई बसावट में पैदल यात्रियों के लिए बने फुटपाथ अतिक्रमण के शिकार हैं। मुझे नही लगता कि इस मामले को कभी संसद या विधानसभाओं में एक गंभीर समस्या की तरह उठाया भी गया होगा। यहां यह बताना जरुरी है कि चैथी सदी के दौरान यूनान के कोरिथ में सड़कों के किनारे फुटपाथ, बनाए गए थे जिसमें रोमवासियों को महारत हासिल थी। इसके बाद मध्य युग के दौरान संकरी सड़कों को पैदल यात्रियों और वाहनों दोनों द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगा। इनके बीच अलगाव वाली कोई रेखा नहीं होती थी। वर्ष 1666 में लंदन जब एक अग्निकांड में बर्बाद हो गया तो  सुचारु रुप से चलाने के लिए 1671 में फुटपाथों के बनाए जाने व उनके रख रखाव का कानून बना। तब से फुटपाथों को भी इंसानी सभ्यता, समझ, सोच और संस्कृति का प्रतीक कहा जाने लगा। आज विदेशों में फुटपाथों पर इस तरह के अवैध कब्जे नहीं मिलते जेसे कि हमारे  में मिलते है। यहां तो आरामदायक सुरक्षित और आशक्तों के लिए मित्रवत फुटपाथ की कमी बुजुर्गो व  आशक्त लोगों को घर में रहने के लिए बाध्य करती है। पर्यटक भी ऐसे पसंद नहीं करते जहां उन्हें फुटपाथों पर चलने फिरने और खरीददारी करने की सुरक्षित ढंग की आजादी न हो।
      नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरों के मुताबिक वर्ष 2013 में भारतीय सड़कों पर 12 हजार पैदल यात्री इसीलिए मारे गए क्योंकि दोषपूर्ण  योजना में सुरक्षित रास्ता और पैदल यात्रियों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त इंतजाम की व्यवस्था ही नहीं थी। कहना गलत न होग कि इन विचलित कर देने वाली मौतों के बावजूद भी हमारे विधानों और नीतियों में पैदल यात्रियों की सुरक्षा के मसले को नजरअंदाज किया गया है। चूंकि 90 प्रतिशतों पर फुटपाथ नहीं हैं इसमें भी पैदल यात्रियों को दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है। पैदल यात्रियों के अधिकारों के लिए मोटर व्हीकल एक्ट (1988) और भारतीय दंड संहिता (1860) जैसे कानून तो हैं लेकिन वे पर्याप्त नहीं है।
      विशेषज्ञों के मुताबिक फुटपाथों की मौजूदा डिजाइनिंग में चूंकि वाहनों को प्राथमिकता दी गई है इसलिए जो स्थान बचता है वह अवैध कब्जों की भेंट चढ़ जाता है। देश में भले ही कई सड़कों को चैड़ा किया जा रहा है लेकिन इसमें सार्वजनिक परिवहन और आटोमोबाइल नेटवर्क तभी दुरुस्त हो सकता है जब पैदल यात्रियों और फुटपाथों पर चलने वालों का नेटवर्क भी बेहतर हो। देश के सभी फुटपाथों की न्यूनतम चैड़ाई दो मीटर होनी चाहिए ताकि सभी पुरुष और महिलाएं अपने सामान के साथ बिना किसी धक्का मुक्की के आवाजाही कर सकें। इसके लिए इंस्टीट्यूट आॅफ अर्बन ट्रांस्पोर्ट इंडिया (आईयूटी) ने समुचित फुटपाथ के प्रावधानों के लिए विस्तृत कोड तो विकसित किया है लेकिन जो फुटपाथ सरकारी उदासीनता और अवैध वसूली के कारण अतिक्रमण के शिकार हैं उनकी सुध कब और कौन लेगा, यह सवाल भी आज देश के नेताओं से जवाब मागंता है।
-- जगदीश चावला

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