महिषासुर
के बहाने कटघरे में दुर्गा
यशभारती डा. रामकृष्ण
राजपूत
गो (गाय) और महिष (भैंस) न केवल भारतीय संस्कृति की प्रतीक हैं वरन् पूरी कृषि
व्यवस्था ही इन दोनों पशुओं पर निर्भर रही ही। बाद में यह एक जाति विशेष की टोटम की
प्रतीक बन गयी। प्राचीन व्यवस्था में कर्म के अनुसार ही जातियां बनने की परंपरा थी।
स्वास्थ्य और दुग्ध आधारित उत्पादों के व्यवसायांे की दृष्टि से भी यह अति उपयोगी का
विषय रही है। अभी कुछ दिन पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने ‘महिषासुर-दुर्गा’ प्रकरण के पूर्व में
प्रकाशित पम्पलेट को संसद में ज्यों का त्यों पढ़कर सुनाया था। राज्यसभा में बहस के
दौरान माकपा के सीताराम येचुरी ने दावा कि ‘अटल बिहारी बाजपेई ने सन् 1971 में पूर्व प्रधानमंत्री
इंदिरा गांधी को दुर्गा कहकर प्रशस्ति की थी लेकिन श्रीमती गांधी ने दुर्गा उपाधि इसलिए
अस्वीकार कर दिया था क्योकि भारत में बहुत से दलित-पिछडे़ समाज के लोग महिषासुर की
पूजा करते हैं।’ इस पर विपक्ष ने उनकी तीक्ष्ण आलोचना भी की थी।
पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के चुनाव के चलते इस प्रकार के मामले अब कुछ ज्यादा ही गर्माने
लगे हैं।
सुर - असुर संग्राम अर्थात आर्य - अनार्य युद्ध में आर्य संस्कृति के घोर विरोधी
महिषासुर का वध करने वाली दुर्गा ने प्रकारान्तर से पिछड़ों को अपना सामाजिक और सांस्कृतिक
दास बनाने के लिए उनके पूर्वज महिषासुर की हत्या की थी। हजारों वर्षों पूर्व आर्य संस्कृति
की राह में बाधक बने महिषासुर की हत्या करने वाली दुर्गा की पूजा अभिजात्य वर्ग द्वारा
इन्हीं शोषित जातियों से आज भी कराई जा रही है। प्रश्न यह है कि क्या दुर्गा देवी वास्तव
में शक्ति की प्रतीक हैं,
महाप्रतापी
हैं, शत्रुहन्ता
है? भैंसवार, भैंस (महिष) पालकों
के स्वामी, कृष्णवर्णी, उभरे मांसपेशियों वाले
पहलवान, खड़ी मूंछों
वाले महिषराज वीर- पराक्रमी का वध करने में ही उसने सारी शक्ति क्यों लगा दी। राक्षसों, असुरों और दैत्यों के
वीरता, दानपूर्ण और
तप से प्रसन्न होकर अक्सर दान देने वाले शिव को ही पदाघात करने में उसने अपनी वीरता
प्रदर्शित करके ब्रहमा, विष्णु और इन्द्र
की वैष्णव तिकड़ी को नीचा दिखाने के लिए ही अपना सारा उपक्रम और षड़यंत्र क्यों रचा? महिषासुर अर्थात महिष
प्लस असुर का अर्थ है भैंस-भैंसा और पालक अर्थात यदुवंशी और असुर का अर्थ है मूल जाति
के मेहनतकश वे लोग जो सुरा से दूर रहते हो। भारत के इतिहास में असुरों द्वारा किये
गये अत्याचार - अन्याय का एक भी उदाहरण संभव नही। सिवाय इसके कि वे अन्न, घृत, वनस्पति सम्पदा को नष्ट
करने वाले ब्रहमा, विष्णु और इन्द्र
आदि की यज्ञ परम्परा के विरोधी थे। वे ब्राहमणवादी सत्ता के लिए चुनौती बने। उन्होंने
कभी भी मानवता विरोधी कोई भी कृत्य नहीं किया। वचन निभाने के लिए सर्वस्वदान और यहां
तक कि अपने प्राणों का भी बलिदान कर दिया।
पौराणिक कथाओं को देखें तो देवता लोग छलपूर्वक अनेक असुरों का वध करते रहे।
इसी प्रकार उन्होंने वीर,
पराक्रमी
और दानवीर महिषासुर राजा को अपने रूपजाल में फंसाकर उसका वध करने के लिए दुर्गा को।
दुर्गा ने महिषासुर से विवाह भी कर लिया फिर देवों का संकेत पाकर उसने नवें दिन उसकी
हत्या कर दी। इसी प्रतीक के रूप में आर्य-ब्रहम प्रेरित जातियों द्वारा नवरात्र में
दुर्गा पूजा मनायी जाती है और आश्विन की नवमी के बाद की दसवीं को विजयोत्सव के रूप
में विजय दशहरा मनाया जाता है। इसी दिन एक अन्य असुर राजा रावण का भी वध किया गया था।
महिषासुर के पिता ‘रम्भासुर’ असुरों (पशुपालकों)
के राजा थे, उनकी माता ‘श्यामलता’ राजकुमारी थीं, जोकि श्यामलवर्ण की
थीं। मध्य एशिया, ईरान, तिब्बत आदि स्थलों से
आर्य आक्रांताओं ने इन मूल निवासी पराक्रमी राजाओं की स्वबल से नहीं बल्कि छलबल से
हत्या कराई। श्री चन्द्रभूषण सिंह यादव के संपादकत्व में निकलने वाली ‘यादव शक्ति’ मासिक पत्रिका के पृष्ठ
चार पर प्रकाशित ‘‘ महिषासुर यादववंश
के राजा थे ’’ लेख में अनेक
तर्कसंगत प्रमाणों से महिषासुर को यदुवंशी सिद्ध करते हुए अपने यादव बंधुओं से दुर्गा
पूजा से विरत रहने का परामर्श दिया है। अनेक आधारों पर महिषासुर यादव, दुग्धपालक, ग्वाला, भैंसपालक और पशुपालकों
का वंशज ठहराता है। वह पहलवान, भयभीत न होने वाला, नतमस्तक न होने वाला, स्वाभिमानी, लड़ाकू, सांवला और मूंछदार (पानीदार) है, जो मर सकता है लेकिन
झुक नहीं सकता। ‘असंख्य भैंसों
के पालक (स्वामी) का नाम महिषासुर पड़ा होगा। आखिर महिषासुर का वध दुर्गा के द्वारा
ही क्यों करवाया गया। पुरातनवादी ग्रंथों में उल्लेखित प्रसंगों के अनुसार ही अहिल्या
का सतीत्व भंग करने वाला,
सोमरसपान
करने वाला, मधुपर्क खाने
वाला, मेनका-उर्वशी
आदि अप्सराओं का भोग करने - कराने वाला इन्द्र जब परास्त हो गया तब येनकेन प्रकारेण
दुर्गा को भेजकर महिषासुर का वध कराया होगा। आखिर इन्द्र की विशाल सेना महिषासुर को
पराजित नही कर पायी तो एक स्त्री दुर्गा उसे कैसे पराजित कर सकती थी, उसके वध के पीछे इन्द्र
- विष्णु का स्त्री षड़यंत्र था।
डी.डी कौशाम्बी ने अपनी पुस्तक ‘‘ प्राचीन भारत की संस्कृति
और’’ के पृष्ठ संख्या
58 पर लिखा है कि ‘‘ जिन पशुपालक ग्वालियों
ने इन वर्तमान देवों को स्थापित किया है, वे इन प्राचीन महापाषाणों के निर्माता नहीं थे, उन्होंने चट्टानों पर
खांचे बनाकर महापाषाणों के अवशेषों का अपने पूजा स्थलों के लिए स्तुपनुमा शवाधानों
के लिए केवल पुनः उपयोग ही किया है। उनका पुरूष देवता म्हसोवा या इसी श्रेणी का कोई
देवता बन गया, जो कि आरम्भ
में पत्नी रहित था और कुछ समय के लिए खाद्य संकलनकर्ताओं की अधिक प्राचीन मातृ देवियों
से संघर्ष चला, परन्तु शीघ्र
ही दोनों मानव समूहों का एकीकरण हुआ और फलस्वरूप इनके देवी देवता का विवाह भी हो गया।
कभी कभी किसी ग्रामीण देव स्थल में महिषासुर - म्हसोवा को कुचलने वाली का दृश्य दिखाई
देता है तो 400 मीटर की दूरी
पर वही देवी, थोड़ा भिन्न
नाम धारण करके, उसी म्हसोवा
की पत्नी के रूप में दिखाई देती है। यही देवी ब्राहमण धर्म में शिव की पत्नी पार्वती
के रूप में प्रकट हुयी, जो महिषासुर
मर्दनी है और यही कभी अपने पुराने स्वरूप में लौट कर शिव तक का पद - मर्दन करती है।
यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि सिन्धु सभ्यता की एक मुहर पर त्रिमुख वाले जिस आदिरूप शिव
की आकृति उकेरी हुई है, उसके सिर पर
टोप पर भी भैंस के सींग हैं। ‘इस उद्धरण मंे आया ‘ग्वालियों’ शब्द का अर्थ ग्वाला अर्थात गो-भैंस पालक अर्थात यदुवंशी
हैं।’’ अर्थात डी.डी.
काशाम्बी ने भी महिषासुर या म्हसोवा को गवली या ग्वाला या यादव ही माना है। ‘महाभारत में गीता और
कृष्ण को आर्य एवं चार वर्णों का रचनाकार बताया गया है। वहीं ऋग्वेद में कृष्ण को
(अनार्य) असुर बताते हुये इन्द्र के हाथों मरवाया गया है। एक ही लेखक वेद व्यास महाभारत
में इन्द्र को कृष्ण के द्वारा पराजित करता है और वही लेखक वेद व्यास ऋगवेद में कृष्ण
को असुर बताते हुए इन्द्र द्वारा चमड़ी छीलकर कृष्ण को मारने की बात लिखता है।’ - (यादव शक्ति मासिक पत्रिका
नवम्बर 2014 पृष्ठ 5 पर)। भगवतशरण उपाध्याय
ने अपनी पुस्तक ‘खून के छींटे
इतिहास के पन्नों पर’ में अध्याय
‘ब्राहमण’ में लिखा है- ऋग्वेदिक
परम्परा में मैं भारतीय नहीं हूं। जिस देश में ऋग्वेदिक आर्य भारत में आए थे, मैं भी वहीं से आया
था, क्योकि मैं
ही उसका नेता, उनका मंत्रदाता
था।
अनार्य महापुरुष महिषासुर ने जब इन्द्र को परास्त किया तो आर्य खेमे में मायूसी
छा गई। यह कैसी मायूसी थी?
यह
मायूसी यज्ञ न कर पाने की थी। यज्ञ में लाखों गायों, बैलों, भैंसों, घोड़ों,
भेड़ों, बकरों को काट कर आर्य
लोग चावल मिश्रित मांस पकाकर मधुपर्क के रूप में खाते थे। सोमरस एवं मैरेय (उच्च श्रेणी
की शराब) पीते थे। जौं, तिल व घी आदि
यज्ञ के नाम आग में जलाते थे। अनार्य पशुपालक एवं कृषक थे जबकि आर्य परिश्रम नहीं करते
थे। वे अनार्यों से छीनकर खाते थे। आर्यों - अनार्यों के इस युद्ध में अनार्यों को
यज्ञ विरोधी असुर घोषित किया गया। आर्य सुरा सुन्दरी के सेवनकर्ता थे, ये अप्सराएं रखते थे।
आर्य राजाओं ने परस्त्रीगमन को धर्मसंगत बताकर वृंदा, अहिल्या, मन्दोदरी, कुन्ती सहित अनेक स्त्रियों
के चरित्र से खिलवाड़ किया। इन कार्यों को सनातन धर्म का अंग बताया गया और जब अनार्यों
ने उसके विरुद्ध महिषासुर,
बलि, रावण, हिरण्यकश्यप आदि के
रूप में संघर्ष किया तो इन्हें छल और अनैतिक रूप से मार डाला गया। कोलकता में दुर्गा
प्रतिमा बनाने वाले कारीगर वेश्यालय से थोड़ी मिट्टी अवश्य लाते हैं। इस प्रक्रिया का
चित्रण ‘देवदास’ फिल्म में भी मिलता
है। वेश्याएं दुर्गा को अपनी कुलदेवी मानती
हैं इसलिए दुर्गा प्रतिमा बनाने के लिए वेश्यालयों से मिट्टी लाने का प्रचलन है। ये
लोग दुर्गा को वेश्या ही मानते हैं जोकि ‘अभिरा’ नाम की मूल घुमंतू जनजाति की देवी मानी जाती थीं। दक्षिण भारत
में भी जनजातियों की सुन्दर कन्याओं का देव-पुजारी लोग देवदासी के रूप में उपयोग करते
थे और इन देवदासियों से उत्पन्न सन्तानों को हरिजन (हरि से उत्पन्न) कहा जाता था।
मानव की प्रकृति पर विजय और मानव सभ्यता
के विकास की पौराणिक दंत कथाओं तथा जनश्रुतियों से भी आदिवासी सभ्यता का इतिहास मिलता
है। ‘एन्थ्रोलाॅजी’ के इतिहास से भी आदिवासियों
की प्राचीनता की जानकारी होती है। दुर्गा और महिषासुर की गाथा आर्यों द्वारा हजारों
वर्ष पूर्व छलपूर्वक अपनी संस्कृति थोपकर हमारे समाज को गुलाम बनाने का हिस्सा है जिस
पर पढ़े लिखे पिछड़े एवं दलितों को व्यापक पैमाने पर शोध करने की आवश्यकता है। परम्परागत
सड़ी हुई विकृत लाश के बोझ को उतारकर फेंकना ही होगा और एक नयी तथा मेहनतवर्ग की संस्कृति
को विकसित करने की आज अपरिहार्य आवश्यकता है।
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