खामियों भरे आरक्षण की समीक्षा से करेंगे परहेज क्यों

खामियों भरे आरक्षण की समीक्षा से करेंगे परहेज क्यों

अभी हाल ही में रोहतक से मुझे मेरे एक मित्र हे अपने आईएस बेटे की शादी का निमंत्रण भेजा लेकिन वहां आरक्षण की मांग को लेकर चल रहे जाटों के हिंसक और बेकाबू होते आंदोलन के कारण मैं वह शादी अटेंड नहीं कर पाया इस आंदोलन में जहां 15 लोग मारे गए और कई शहरों यथा रोहतक, भिवानी, जींद, सोनीपत, झज्जर, गोहाना, हिसार हांसी तक में कफर््यू लगा दिया गया, वही यहां कई जगहों पर 
स्थिति इतनी विस्फोटक हो गई कि यहां कहीं जगह पर बनो वाहनों, मकानों और पुलिस थानों में आग लगा दी गई। कई दुकाने लूट ली गई। कुछ मंत्रियों के घर पर जमकर तोड़फोड़ की गई। स्थिति को संभालने के लिए जब सेना की कई टुकडियां बुलाई गई तो उन्हें भी अपने गंतव्य तक पहुंचने में हवाई मार्ग का सहारा लेना पड़ा। यहां कई स्कूल व कॉलेज बंद कर दिए गए। यहां रेल की पटरियों जमे आंदोलनकारियों को हुक्का गुडगुडाते तो सभी ने देखा लेकिन यहां एक हफ्ते से ज्यादा उपद्रवियों ने कितना उत्पात मचाया और निजी व सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया इसका आकंलन करना अभी शेष है। आंदोलनकारियों ने इस बार भी मुनक नहर का फाटक बंद कर दिया जिससे दिल्ली के कई इलाकों में जल संकट पैदा हो गया। हालांकि हरियाणा सरकार ने आंदोलनकारियों को यह विश्वास दिलाया कि उनकी सभी मांगे मान ली गई हैं लिहाजा वे अपने घर लौट जाएं, पर कोई उनकी बात सुनने को तैयार नहीं था। इससे जाहिर है कि इस आंदोलन के तांडव का खामियाजा उस आम जनता को भुगतना पड़ा जो अपने ईलाज, इंटरव्यू और रोजमर्रा के काम आने वाली चीजो से वंचित रह गई।
ऐसे ही कुछ समय पहले गुजरात में एक अनुभव हीन नेता हार्दिक पटेल की ओर से अपने समुदाय को गोल बंद करके आरक्षण की मांग की गई थी और उसके चलते हैं गुजरात में भी उपद्रवियों ने वही कुछ किया जैसा हरियाणा में किया गया आरक्षण की मांग को लेकर हरियाणा में किया गया। आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन चाहे जाटों का हो पाटीदार अनामत आंदोलन समिति का हो, इनका हिंसक होना किसी भी समझदार व्यक्ति को पसंद नहीं आता। वैसे भी हिंसा, लूटपाट या गुंडागर्दी किसी को किसी समस्या का समाधान नहीं है। 
संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया था ताकि समाजिक विकास की प्रक्रिया में पीछे छूट गए तबको के लिए ‘अवसरों की समानता’ सुनिश्चित की जा सके। इसमें सदियों से उपेक्षित वर्ग के लोग जब सरकारी नौकरियों या समाज के अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश पाएंगे तो उनकी सामाजिक हैसियत बदलेगी और उनके पूरे समुदाय को आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलेगी। लेकिन समय बीतने के साथ आरक्षण राजनीति का ऐसा औजार बनकर रह गया हैं कि जिसमें राजनीतिक पार्टियों को जब जिस जाति के सहयोग की जरूरत होती है वह उन्हें आरक्षण का झुनझुना थमा देती है। 
यहां यह बताना जरुरी है कि देश की आजादी के समय कोई नेता नहीं चाहता था कि भारत में जाति आधारित आरक्षण लागू किया जाए। उस समय मुस्लिम नेताओं ने तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल के सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 15 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के प्रस्ताव को यह कहकर नामंजूर कर दिया था कि आरक्षण सोच को संकीर्ण कर देता है, जबकि देश पहले ही अंग्रेजों द्वारा खेले गए साम्प्रदायिक कार्ड के चलते बंटवारे की भारी कीमत अदा कर चुका है ऐसे में तत्कालीन कानून मंत्री बी. आर अंबेडकर, जो स्वयं दलित थे, ने कहा था कि उनका समुदाय आजीवन आरक्षण की बैसाखियों के सहारे नहीं घिसटना चाहता। लेकिन तब खासे दबाव के बाद अंबेडकर को अनुसूचित जाति@जनजातियों के लिए दस साल तक आरक्षण स्वीकारने को तैयार किया गया था। तब डॉ. अंबेडकर को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि वोट बैंक की नीति के चलते हैं आरक्षण स्थाई रुप अख्तियार कर लेगा। 
उस समय चूंकि जाति या धर्म के आधार पर आरक्षण कतई मंजूर नहीं था इसलिए सविधान निर्माताओं के में अनुच्छेद 15(1) में स्पष्ट रुप से राज्यों को जाति, धर्म, नस्ल या जन्म स्थान को लेकर भेदभाव न करने का प्रावधान भी बनाया। बाद में अनुच्छेद 16(4) में आरक्षण के कानून को बनाने के अधिकार जब राज्यों को दिए गए तो वहां भी जाति की जगह पर ‘पिछड़े वर्ग’ जैसे शब्द का प्रयोग किया गया। 
वर्ष 1950 में देश को गणतंत्र बनाएं जाने के एक साल में ही तत्कालीन मद्रास सरकार ने एक आदेश जारी कर जाति आधारित आरक्षण को मंजूरी दी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने गलत कर दिया। गनीमत रही कि इसके बारह साल बाद वर्ष 1963 में सुप्रीम कोर्ट ने एम. आर. बालाजी केस में 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण न देने का आदेश दिया वरना सत्ता में बैठे नेता पता नहीं इसे कहां तक पहुंचा देते। इसके बाद 1979 में जनता पार्टी की 
सरकार के समय मंडल आयोग बना, क्योंकि तब तक पिछड़ी जातियों का कांग्रेस से मोह भंग हो चुका था और जनता पार्टी इस वोट बैंक को शाश्वत समर्थन के रूप में चाहती थी। दो साल में रिपोर्ट आई लेकिन कांग्रेस सरकार की हिम्मत नहीं हुई थी वह मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करें। इसके बाद 1990 के दौर में कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह मंडल आयोग की सिफारिशों को धो पौंछकर जब इसके तहत 27 प्रतिशत आरक्षण ओ.बी.सी. को देने की घोषणा की तो देश में आरक्षण की आग इस कदर भड़की कि जिसमें जान और माल का काफी नुकसान हुआ। उस समय उत्तेजना में आकर एक युवक राजीव गोस्वामी ने खुद को आग के हवाले कर दिया था और तब देखते ही देखते कहीं देशभर के छात्र चलते-फिरते ज्वालामुखी बन गए थे। तब भी कई शहरों में हिंसा का तांडव हुआ था। दूसरी तरफ विश्वनाथ प्रताप सिंह के इस कदम की प्रतिक्रिया नहीं समाज का हर तबका अपनी ताकत को मजबूत करने में जुट गया और सारे देश की जातियों के नाम पर सम्मेलन होने लगे इसी दौरान स्व. कांशी राम ने उत्तर प्रदेश में अपनी बहुजन समाज पार्टी का चमकदार भविष्य देखा तो उन्होंने भी दलित अस्मिता के नाम पर दलित वोट बैंक खड़ा कर दिया ऐसे में जिन पिछड़ी जातियों में आरक्षण का लाभ उठाया उन्हें तो यह खूब रास आया लेकिन अगड़ी जातियों को लगा की सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में यदि आरक्षण वर्षों तक लागू रहा तो इससे योग्य और मेरिट वाले लोगों के रास्ते ही बंद हो जाएंगे यह सोचकर अगड़ी जातियों में बढ़ती बेचेनी ने उन्हें मजबूर कर दिया कि
वे भी अपने आप को ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण पाने का हकदार बनाएं अन्यथा आरक्षण की खैरात उन्हें कभी नहीं मिल पाएगी। अगड़ी जातियों में भी कई ऐसे लोग हैं जिनकी आर्थिक दशा पिछड़ी जातियों से भी गई बीती है लेकिन उन्हें आरक्षण मिलने की कोई संभावना नहीं है। इसलिए समय समय पर उनकी दबी कुठांए आंदोलन के रुप में उभर आती है। अगड़ी जातियों को यही चिंता है कि आरक्षण के लागू होने के वर्षों बाद इसका लाभ ले रही पिछड़ी जातियों की क्रीमी लेयर कब तक पिछड़ो को मूर्ख बनाती रहेगी और कब तक आर्थिक रुप से विपन्न अगड़ी जातियों के अच्छे दिन वापस आएंगे?
कई विचारकों का कहना है कि ‘आरक्षण समाधान है या समस्या’? इस पर सोचना जरुरी है। यदि आरक्षण जाति-विभेद का समाधान होता तो आज भी पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित पदों में से आधे पद खाली क्यों रह जाते हैं? और जिनमें योग्यता है उन्हें नौकरियां या ऊंचे पद क्यों नहीं मिलते? 
हकीकत यह है कि जब से देश में आरक्षण सामाजिक आर्थिक आधार के बजाय राजनीतिक सत्ता में हिससेदारी का जरिया बन गया है तब से यह नीति भी कईयों को मजाक लगती है। आरक्षण के मामले में हर किसी के अपने तर्क है। कोई कहता है कि सन 2005 में जामिया मिलिया 200 से अधिक और दिल्ली विश्वविद्यालय में 20 प्रतिशत सीटें जो अनुसूचित जाति व जनजातियों के लिए आरक्षित हैं वे क्यों रिक्त पड़ी रहीं? उड़ीसा के बेरहामपुर विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा की आरक्षित सीटें क्यों नहीं भर पाई? एक आंदोलन में यह भी सुना गया कि घोड़ा गधे से ज्यादा दौड़ सकता है तो क्या घोड़े के पांव में कोई ऐसी जंजीर बांधनी चाहिए की गधा आगे निकल जाए। तेज चलना तो घोड़े की प्रतिभा है कमजोरी नहीं यदि 40 प्रतिशत नंबर पाने वाले को बाहर का रास्ता दिखलाना कौन सा न्याय है? इसी तरह यदि आईआईटी में कुद लोग कम नम्बरों के रहते आरक्षण के कोटे से प्रवेश के पात्र बन जाते हैं तो अच्छे नम्बरों वाले मेधावी छात्रों का चिंताग्रस्त होना स्वाभाविक हैं। इस सारी समस्या की वजह वे राजनीति बाज हैं जिन्हें हर जाति, धर्म और संप्रदाय का वोट तो चाहिये लेकिन आरक्षण उन्हीं को देते हैं जिनसे उनका वोट बैंक बढ़ता है। आर्थिक रुप से पिछडे़ वर्ग के आरक्षण के साथ राजस्थान में आरक्षण का आंकड़ा 68 प्रतिशत तक महाराष्ट्र में 73 प्रतिशत, तमिलनाडु में 69 प्रतिशत, नॉर्थ ईस्ट रीजन में 80 प्रतिशत तक पहुंच गया है जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित आरक्षण की ऊंचाई की अधिकतम सीमा से ऊपर है तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश के 66 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा में गुर्जर व जाट भी अपने लिए आरक्षण लागू करवा चुके हैं। वह दीगर बात है कि गुर्जरों व जाटो को आरक्षण को बाद में न्यायालय भी असंवैधानिक करार देकर खरीद चुका है। समझने की बात है कि आरक्षण पाने के लिए चाहिए महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन का गुजरात में पटेल अथवा कर्नाटक में ब्राह्मण, लेकिन इनके आधारों का मिलान इसलिए संभव नहीं है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण के विचार को पूरी तरह से ठुकरा चुका है। उसका साफ कहना है कि पिछड़े वर्ग के अलावा और किसी भी श्रेणी के लिए आरक्षण स्वीकार नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यह साबित होता है कि आरक्षण के आधार के रूप में सामाजिक और आर्थिक पिछड़े पन को किसी भी तरह से मैं तो आपस में मिलाया जा सकता है और न ही एक पलड़े में तोला जा सकता है। ऐसे में दोनों को बराबर रखने की कोशिश करना वास्तव में सामाजिक वंचिता के चलते अफसरों के बाधित होने की विशिष्टता को पहचानने से इंकार करना ही होगा। लेकिन कई जातिय नेता और राजनेता इस व्यवस्था को ठीक नहीं मानते। उनका कहना है कि देश में पिछड़ों को अगड़ो के समान लाने की जो नीति लागू की गई है वह तकनीकी तौर पर अपनी शुरूआत से ही गलत है। इसमें केवल कुछ राजनीतिक बाजो और स्वार्थी लोगों को ही लाभ मिला है जबकि अन्य सभी जातियों के गरीब, जो आरक्षण के पात्र हैं, वे आज भी पिस रहे हैं। ऐसे में आरक्षण की नीति में संविधान की उस व्यवस्था का भी गला घोट दिया है जो हर भारतीय को समान मानती है तथा जो सबके लिए समान व्यवहार को सुनिश्चित करती है।
  हार्दिक पटेल के नेतृत्व में गुजरात के ताकतवर पटेल समुदाय ने जिसकी गुजरात की 1981 कथा 1985 के आरक्षण विरोधी आंदोलन में अग्रणी भूमिका रही थी उसने भी जब पिछले दिनों अपने लिए आरक्षण की मांग उठाई उसके साथ में उसके साथ दूसरा यह विकल्प भी होना उचित समझा किया तो पटेल समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग की आरक्षण मैं शामिल करो या फिर आरक्षण की व्यवस्था को ही खत्म करो। ऐसे में सवाल लिए हैं कि काफी संपन्नता के बावजूद आखिर पटेल समुदाय या जाटो को आरक्षण क्यों चाहिए हार्दिक पटेल का उभार जिन कारणों से हुआ हो गुजरात में पटेल समुदाय उस पात्रता पर खरा नहीं उतरता जिसके आधार पर उसे आरक्षण दिया जा सके गुजरात में पटेल को आज भी सबसे संपन्न तबको में गिना जाता है। हीरे और टेक्सटाइल के कारोबार में उनकी बहुतायत है मूंगफली के तेल के व्यवसाय से लेकर रीयल एस्टेट और एजुकेशन ट्रस्टों में उनका वर्चस्व है। यहां 90 प्रतिशत पटेल पहले ही करोड़पति हैं और तो गुजरात को जलाकर वह कितनी नौकरियां पा लेंगे? इसी तरह जाटो में भी कई लोग बड़े जमीदार हैं व सम्पन्न है। एक सूचना के अनुसार हरियाणा में 63 प्रतिशत जाट मंत्री हैं। 60 प्रतिशत आईएएस और 69 प्रतिशत आईपीएस हैं। 43 प्रतिशत पेट्रोल पंप जाटों के हैं। 41 प्रतिशत गैस ऐजेसियां इनकी है। 69 प्रतिशत हथियार के लाइसेंस इनके नाम पर है। लगता है कि कुछ राजनीतिक बाजों ने आरक्षण को भी, जिस तरह का भरोसा है, अपना चुनावी हथकंडा बना लिया है। 
कौन नहीं जानता कि मनमोहन की कांग्रेस सरकार ने लोकसभा चुनाव से पहले किस तरह विभिन्न राज्यों में जाटो को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करते हुए आरक्षण प्रदान किया कर दिया था। चूंकि यह फैसला चुनावी लाभ की लिस्ट मंे आनन फानन में किया गया था और इस क्रम में तय प्रक्रिया का पालन भी नहीं किया गया था लिहाज़ा सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया। 
हरियाणा में आरक्षण का मसला काफी गंभीर होता जा रहा है। यहां जब भी आरक्षण को लेकर कोई मांग उठती है तो वह सरकार के गले की फांस बन जाती है। पहले जाट आंदोलन की तपिश कांग्रेसी मुख्यमंत्री भुपेन्द्र सिंह हुड्डा ने सही, अब उसकी आंच भाजपा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल झेल रहे है। राजनीति के जानकारों का कहना है कि सुप्रिम कोर्ट के आदेश से इतर यदि कोई राज्य सरकार अथवा केन्द्र सरकार जाट समुदाय को फिर से अन्य पिछड़ा एक समुदाय में शामिल कर उसे आरक्षण देने की घोषणा कर देती है तो ऐसी किसी घटना का असर भी वही होगा जो मनमोहन सिंह सरकार का हुआ। दूसरे शब्दों में कहीं कहीं तो अब आरक्षण की मांग केंद्र और राज्य सरकारों के लिए भी किसी सिर दर्द से कम नहीं है। इसमें जो जिन्न बोतल से बाहर निकल आया है, उसे वापिस बंद करना असंभव है। वैसे भी जिस देश में खुद को पिछड़ा सिद्ध करने की होड़ लगी हो, वह देश आगे कैसे बढ़ सकता है? जहां तक सरकारी नौकरियों का सवाल है, वे भी इतनी कम है कि उनमें देश के सभी बेरोजगारों को खपाना किसी के लिए भी संभव नहीं है। जिन लोगों को सरकारी नौकरियों का नशा लग चुका है वे भी जानते हैं कि सरकारी सरकारी नौकरियां मुश्किल में दो करोड़ के आसपास हैं जब की जरूरत 60 करोड़ नौकरियों की है। यह सारी नौकरियां आरक्षण की कोटे में से भी भरी नहीं जा सकती। इसलिए यदि देश को विकसित देश के रूप में सफल होना है तो बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्र के रोजगार विकसित करने पड़ेंगे जहां स्कूल और मेरिट वाले लोग अपनी उम्मीदों को पूरा कर सकते हैं यह ठीक है कि जाटों और पटेलों में सभी समृद्ध नहीं है। उत्तर भारत की तकरार किसान जातियां भी शिक्षा उद्योगिक संस्कृति के मामले में पिछड़ी हुई है। ऐसे में उन्हें भी लगता है कि आरक्षण से उनके बच्चे भी आईआईटी या प्रतिष्ठित संस्थान में भर्ती हो पाएंगे  
और वे खेती और जमीन की निर्भरता से मुक्त हो सकेगें। लेकिन इसका निदान भी हर किसी को आरक्षण का वादा करना नहीं है बल्कि ज्यादा अवसर पैदा करना है और तंत्र को ज्यादा न्याय संगत बनाना है ताकि आरक्षण की मूल भावना भी बनी रहे और आर्थिक रुप से पिछडे़ लोग राजनैतिक खेल का मोहरा भी न बनने पाएं। इस समय आरक्षण जाति वादी व्यवस्था का राष्ट्रीय संग्रहालय ही साबित हो रहा है। आरक्षण में जो खामियां और विसंगतियां हैं उन्हें दूर किया जाना चाहिए। लेकिन वह समीक्षा पारदर्शी हो, वोटबैंक बनाने वाली नहीं। ऐसी समीक्षा में में आरक्षण का लाभ यदि पिछड़ी जातियों के साथ साथ आर्थिक आधार पर हर गरीब को (चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का हो), हर अपंग, हर अनाथ और देश के लिए शहीद होने वालों के बच्चों को मिल सके तो उसे भी आरक्षण की सार्थकता ही कही जाएगी।
--- जगदीश चावला

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