जो वर्तमान में है, वह बाद में भी है

जो वर्तमान में है, वह बाद में भी है

जो वर्तमान में है, वह बाद में भी है
यह उस समय की बात है जब चंदनगढ़ पर राजा सूर्यसेन शासन करते थे। उनके महामंत्री का नाम वीरेंद्र सिंह था। वह वृद्ध हो चले थे और राजकाज के उलझन भरे और जटिल कार्यों से मुक्ति चाहते थे। एक दिन उन्होंने अपनी इच्छा राजा सूर्यसेन को बताई। महामंत्री की बात सुनकर राजा सोच में पड़ गए। कुछ देर विचार करने के बाद उन्होंने कहा, ”ठीक है महामंत्री, किसी योग्य व्यक्ति के मिलते ही मैं तुम्हें राज्य की जिम्मेदारियों से मुक्त कर दूंगा लेकिन तब तक तो तुम्हें मंत्री पद पर बने रहना होगा।महामंत्री वीरेंद्र सिंह ने महाराज को परामर्श देते हुए कहा, ”महाराज! हमारे नगर में विद्याधर नाम का एक युवक रहता है। वह बुद्धिमान, विवेकशील, सूझ-बूझ वाला, मेहनती और ईमानदार लड़का है। मैंने बहुत लोगों से उसकी बुद्धिमता के चर्चे सुने हैं। अभी कुछ माह पूर्व ही वह महर्षि शिवानंद जी के आश्रम से शिक्षा प्राप्त करके लौटा है। उसने शिक्षा के क्षेत्र में विशेष योग्यता प्राप्त की है। मुझे पूर्ण आशा है कि मेरे पश्चात वह मंत्री पद के कार्यों का भली-भांति निर्वाह करेगा। राजा ने कहा, ”ठीक है, महामंत्री, आप उस युवक को किसी दिन दरबार में बुलवाइए। हम उसकी परीक्षा लेंगे। यदि वह परीक्षा में सफल रहा तो हम उसे अवश्य मंत्री पद पर नियुक्ति प्रदान करेंगे। विद्याधर को राज दरबार में बुलाया गया। सभी दरबारी उपस्थित थे। विद्याधर लम्बा, चौड़ा, तगड़ा युवक था। उसका व्यक्तित्व तो राजा को भा गया परंतु बुद्धि परीक्षा तो आवश्यक थी। राजा ने विद्याधर से कहा,”युवक! मैं तुमसे एक प्रश्र पूछता हूं। यदि तुमने उसका उत्तर सही-सही दे दिया तो मैं तुम्हें परीक्षा में उत्तीर्ण समझूंगा और अपने राज्य का मंत्री पद तुम्हें प्रदान करूंगा। मेरा प्रश्र है, ”जो वर्तमान में है, वह बाद में भी है?” विद्याधर ने राजा के प्रश्र को ध्यान से सुना, सोचा-समझा और राजा से निवेदन भरे स्वर में कहा, ”महाराज, इस प्रश्र का उत्तर देने के लिए मुझे आपको राजभवन से बाहर लेकर जाना होगा। ”ठीक है, हम तुम्हारे साथ चलेंगे। विद्याधर की बात पर राजा सहमत हो गए।विद्याधर और महाराज ने साधु का वेश बनाया और राजभवन से निकल कर नगर की ओर चल पड़े। साधु के वेश में दोनों नगर के एक व्यवसायी के यहां पहुंचे। वह व्यवसायी बड़ा धार्मिक था। उस समय वह अपने व्यावसायिक कार्यों में व्यस्त था। धार्मिक और दयालु प्रवृत्ति का होने के कारण जब उसकी दृष्टि द्वार पर पधारे दो साधुओं पर पड़ी तो वह काम छोड़कर उनके पास आया और उचित सम्मान देकर उनसे निवेदन किया, ”हे कृपालु महात्माओ मेरा धन्य भाग्य है कि आप मेरे द्वार पर पधारे। मुझे आज्ञा दें कि मैं आपकी क्या सेवा करूं? विद्याधर ने व्यापारी से कहा, ”हमारा दोनों का जन्म अभिजात्य परिवार में हुआ है। किसी समय हमारे पास किसी भी चीज की कमी नहीं थी लेकिन विधाता का रचा विधान बड़ा विचित्र है। आज हम इतने दरिद्र हो गए हैं कि अभावों के कारण हमें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। यही कारण है कि संसार में विरक्त होकर हमने संन्यास धारण कर लिया है परंतु हमारी एक समस्या है। उसी के कारण बड़ी उम्मीद लेकर आपके पास आए हैं। समस्या यह है कि मेरे गुरुदेव ने एक सेठ से दो सौ स्वर्ण मुद्राएं ऋण रूप में ली थीं। संन्यास लेने के तुरंत बाद ऋण चुकाना आवश्यक हो गया है परंतु हमारे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है।

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