सहचिंतन - जिंदगी हर कदम एक नई जंग है

सहचिंतन -
जिंदगी हर कदम एक नई जंग है

आमतौर पर हम जब भी किसी से मिलते हैं तो पूछते हैं कि आप कैसे हैं? तुरंत उत्तर मिलता है - ठीक हूं। पर यदि हम फिर से पूछें कि क्या आप सुखी हैं तो उत्तर देने से पहले वही व्यक्ति इस विचार में पड़ जाता है कि मैं क्या कहूं सुखी हूं या दुखी। मैंने ऐसे बहुत कम लोग देखे हैं जो अपने जीवन से पूर्णतः संतुष्ट हैं अन्यथा हर किसी में दुख का सुराग कहीं ना कहीं पर अटका ही नजर आता है। दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जो दूसरों को सुखी देखकर खुश नहीं होते। लेकिन उन्हें दुखी देखकर वे भी उनका दुख बांटने का नाटक करते हैं। या फिर कहते हैं कि भगवान पर भरोसा रखो, सब ठीक हो जाएगा उन्हें कोई यह नहीं बतलाता कि सुख-दुख तो जीवन में लगे ही रहते हैं अतः इन्हें हमेशा सहज तरीके से ही स्वीकार करना चाहिए। मेरा मानना है कि अभाव में जीने वाला एक निर्धन व्यक्ति भी अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा कर खुद को सुखी बना सकता है और अपनी इच्छाओं को विस्तार देने वाला धनपति भी दुखों के भंवर में डूब सकता है। सुख और दुख की परिभाषाएं कैसी भी हो, लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए की जिंदगी हर कदम एक नई जंग है और जो इस जंग को जीतने की कला जानता है वह कभी भी हताश है निराश नहीं हो सकता। लेकिन इसके लिए धैर्य, संयम और संतोष का होना जरूरी है।

एक बार एक युवक अपने देश के प्रमुख समाचार पत्र ‘पेरी हेराल्ड’ में अपनी एक कहानी प्रकाशित करवाने के लिए संपादक के पास गया संपादक ने उसकी रचना देखे बिना ही कह दिया की तुम अभी नए-नए मैंने कहानीकार हो और अनुभव तथा सृजनकला में भी अपरिपक्व हो। इसलिए मैं नहीं समझता कि तुम्हारी रचना हमारे ‘पेरी हेराल्ड’ जैसे पत्र के स्तर की होगी। यह सुनते ही युवक बोला, सर, मैं अपनी कहानी को इस उम्मीद के साथ आपके पास ही छोड़ कर जा रहा हूं कि यदि आपको समय मिले तो इसे एक बार अवश्य पढ़ लीजिए। अगर आप इसमें कोई कमी पायें तो कृपया मुझे बता देना ताकि मैं इसमे वाछिंत सुधार करके इसे बेहतर बना सकूं। यह कह कर वह युवक वहां से चला गया। लेकिन उसे यह बात बार-बार सताती रही कि मेरी कहानी को संपादक ने पढ़ा तक नहीं और उसे रिजेक्ट कर दिया। पर कहीं ना कहीं उसके मन में यह तमन्ना भी थी कि मैं अपनी इस जंग को जीत कर ही रहूंगा। 

समय पलटा और कुछ दिन बाद वहीं संपादक युवक के घर के दरवाजे पर जाकर दस्तक देने लगा। युवक ने जब दरवाजा खोला तो वह उस संपादक को अपने सामने देख कर दंग रह गया तभी उस संपादक ने कहा कि मैं आज स्वयं तुम्हें इस बात की बधाई देने आया हूं कि तुम्हारी कहानी सच में उच्च कोटि की है और यह हमारे पत्र में छपने लायक है। यह कहकर संपादक ने उस युवक को 1000 फ्रेंक के नोट तो दिए ही, पर साथ ही साथ यह भी कहा कि मैं उम्मीद करता हूं कि तुम जैसा महान कहानीकार आर्इंदा भी हमें ऐसी ही कहानियां भेजता रहेगा। वही युवक बाद में एक महान कथाकार मोपासां बना।

इससे पता चलता है कि जीवन के युद्ध में कोई चाहे कितना भी हतोत्साहित करता रहे, हमें अपनी आशाओं का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। 

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि लोग आपकी तरक्की से चिढ़कर कुछ ऐसा कह देते हैं जो सहनीय नहीं होता। लेकिन ऐसी स्थितियों से विवेक से काम लेना और दूसरे को विनम्रता से ‘ार्मसार करना कोई गुनाह नहीं है। एक बार एक विश्वविद्यालय के कुलपति ने जब अपना कार्यभार संभाला तो उनके एक वरिष्ठ सहकर्मी ने व्यंग करते हुए कहा कि सर आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि आपके पिता कभी हमारे परिवार के जूते बनाया करते थे। यह सुनकर वहां खड़े बाकी के शिक्षक हंसने लगे। ऐसे में कुलपति ने सीधा उस व्यक्ति को देखा और कहा कि मैं जानता हूं कि मेरे पिता आपके परिवार के जूते बनाया करते थे और हो सकता है यहां मौजूद कहीं लोगों ने उनके बिना जूते पहने भी हैं। इसका कारण यह है कि जैसे जूते मेरे पिता बनाते थे वैसे जूते कोई और नहीं बना सकता। वह सच में जूतों के रचनाकार थे मैं आपसे यह पूछना चाहता हूं कि क्या आपको उनके बनाई जूतों से कोई शिकायत है मैं यह लिए मैं यह इसलिए पूछ रहा हूं कि मैं भी अपने पिता की तरह जूते बनाने में दक्ष हूं और मुझे उन पर गर्व है। यह सुनते हैं सबकी घिग्गी बधं गई और जो व्यक्ति कुलपति व्यंग कस रहा था, वह भी उनका उत्तर सुनकर लज्जित हो गया और सोचने लगा कि यह कुलपति किस मिट्टी का बना है जिसे अपने पिता के पेशे पर भी अभिमान है। विचारों के युद्ध में जब ऐसे दुखदाई परिस्थितियां सामने खड़ी हों, तो उनका कैसे मुकाबला किया जाए? यह हमें इस कुलपति के आचरण से सीखना चाहिऐ। 

कौरव और पांडव के जमाने में सिर्फ जमाने में तो सिर्फ एक ही निर्णायक महाभारत हुआ था। लेकिन आज की जिंदगी में हर व्यक्ति किसी ना किसी महाभारत से जूझता दिखलाई देता है। कोई रोटी कमाने की जद्दोजहद में लगा है कोई अपने करियर को शानदार बनाने की सोचता है। ऐसे में कईयों को सफलता मिलती है। लेकिन अधिकांश लोग अपनी छोटी छोटी सफलताओं से भी संतुष्ट नहीं होते। और वे इसी बात का रोना रोते हैं कि मैंने मेहनत तो जी भर के की थी लेकिन उसका कोई एहसान इंतजार नहीं उसका कोई ऐसा नतीजा नहीं निकला जिस पर संतोष जताया जा सके। ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि जब जिंदगी मैराथन दौड़ जितनी हो तो दिमाग की धार को भी तेज बनाना जरूरी है होता है। 

एक बार एक व्यक्ति एक महात्मा के पास गया और बोला महाराज मैं अपने जीवन से बेहद दुखी हूं मुझे हर समय कई समस्याएं घेरे रहती हैं। कभी अॉफिस की टेंशन तो कभी घर की अनबन कभी सेहत की परेशानी तो कभी कर्जा ना चुकाने की चिंता मुझे चैन नहीं लेने देती। आप कोई ऐसा उपाय बताएं कि मेरी ये तमाम चिंताएं समाप्त हो जाए और मैं चैन से जी सकूं। 

महात्मा समझदार थे। उन्होंने कहा, ‘बेटा मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर कल दूंगा। पर क्या तुम अभी मेरा एक छोटा सा काम करोगे? 

उस व्यक्ति ने कहा, ‘हां जरूर करूंगा।’ इस पर महात्मा बोले, ‘हमारे काफिले में सौ ऊंट हैं उनकी देखभाल करने वाला बिमार पड़ गया है और मैं चाहता हूं कि तुम इनका ध्यान रखो। तुम तभी सोना जब सारे सौ ऊंट सो जाएं।’

अगले दिन महात्मा ने उस व्यक्ति से पूछा क्या तुम्हें अच्छी नींद आई? 
‘नहीं बाबा, मैं तो एक पल भी नहीं सो पाया। बड़ी कोशिश करने पर भी यदि 90 ऊंटों को सुलाता, तो 10 ऊंट खड़े हो जाते। बड़े कोशिश करने पर भी मैं सभी ऊंटो को नहीं सुला पाया।’
‘मैं जानता था कि यही होगा आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि ये सारे ऊंट एक साथ सो जाएं।’ महात्मा के ऐसा कहने पर वह व्यक्ति नाराजगी भरे लहजे में कहने लगा कि जब आप जानते हैं तो फिर आपने मुझसे यह सारी कवायद क्यों करवाई? इस पर महात्मा बोले ‘‘बेटा कल रात तुमने यह अनुभव किया होगा कि जैसे लाख कोशिशे करने पर हम सारे ऊंठ एक साथ नहीं बिठा सकते उसी तरह हम सारी समस्याओं को भी तुरंत खत्म नहीं कर सकते। कुछ समस्याएं अपने आप खत्म हो जाती हैं और कुछ प्रयास करने पर भी हल नहीं होती।’’ 

इसमें शक नहीं कि जीवन का जीवन का आरंभ अपने रोने से होता है और अंत दूसरों के रोने की से होता है। अतः इस आरम्भ और अंत के बीच जो भी समस्याएं या अवरोध आपके सामने आए आप उनका सामना करने से कभी ना घबराए, बल्कि यह सोचे कि मुझे मुश्किल के इन लम्हों को अपनी सफलता में बदलना है, शिकस्त में नहीं। अपने सामने खड़ी बाधाओं को देखकर निराशा के भाव में बह जाना तो आसान होते है लेकिन इस भाव से ऊपर उठ कर स्वयं को संघर्ष के लिए तैयार करना एक मजबूत व्यक्तित्व निशानी होती है। दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने संघर्षों में तप कर अपनी विपरीत परिस्थितियों को न केवल मात दी बल्कि आज वे दूसरों के लिए रोल मॉडल तक कहे जाते हैं। 

बॉलीवुड के मशहूर फिल्म निर्देशक अनीस बज्मी छाती में खाते में प्यार तो होना ही था, दव मदजतल वेलकम और ेपदही पे ापददह जैसी कोई हिट फिल्में है लेकिन कई लोगों को यह पता नहीं है कि इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्होंने कितना संघर्ष किया है मनीष रजनी का कहना है कि अनीश मेरा बचपन का टिकट इंदौर से गुजरा है बचपन काफी कठिन ओर से गुजरा है दौर से गुजरा है फिल्मों में आना मेरा लक्ष्य नहीं था मैं तो अपनी आर्थिक दिक्कतों के चलते सिल्वर में आया है फिल्मों में आया और 13 साल की उम्र में कमाना शुरु कर दिया उ.ं. दपदरं राजहरा महीने में मैंने 11रू11 बजे महीने में छत्तीसगढ़ छत्तीसगढ़ बदले 36 बार मिले हैं और घर बदलने के दौरान मुंबई के कई लोगों की दादागिरी और लड़ाई झगड़े लोगों की चाल लोगों की चाल उनका और उनके बोलने के केतन किरदारों में करवाया है किरदारों मैं तिरिया है करवाया है मैं मुंबई के बिजी होटल गए जहां सुबह 4रू00 बजे अक्षरों की चातक शायरों की महफिल जलती थी जलती थी महा 29 लिए मारवाड़ी से मुझे यह ईंट फायदा हुआ कि आदमी कक्षा में होने पर मुझे ऊर्जा काले और जय काली मां जैसे शहरो को पढ़ने में जो खत्म होने वाला मैच पढ़ने में समय और मेरा मर भी शायराना रहा मैं कभी साउंड रिकॉर्डर उसको कोशिश भी हुआ करते

वेस्टइंडीज में करता था रोज रोज के ₹5 देते हैं 10 साल बाद मेरी जब साउंड विभाग मेरी समझ में नहीं आया तो मैं आज बात नहीं 8रू00 डिपार्टमेंट में शिफ्ट हो गया यहां 1 साल तक काम करने के बाद ढेर दो मैंने भेज दो साल तक एडिटिंग भी थी एक कंपनी इस तरह कहीं छोटे बड़े काम करने के बाद जब ईश्वर मैं मेरा निदेशक बनना तय किया तो फिर बाद में

-जगदीश चावला 







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