पानी पर बवाल, आखिर किसे है मलाल

पानी पर बवाल, आखिर किसे है मलाल
संदीप कुमार सिंह

आए दिनों पानी की कहानी समाचार पत्रों व टीवी चैनलों पर दिन-रात होते रहना आम बात सी है। लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों न इस बारे में बात हो, जब पानी हर इंसान के लिए उसके जीवन जीने की खातिर अनिवार्य जरूरतों में से जो एक है। लेकिन पानी को पाना इतना आसान भी तो नहीं है जितना आसान बातचीत व बहस में दिखाई पड़ती है। आखिरकार इसे एक अजीब बिड़बना ही कही जायेगी कि जब पानी की धारा सत्ता के गलियारे से होकर गुजर रही हों तो पानी-पानी की गूँज सुनाई न दे ऐसा संभव नहीं है और फिर लोगों की पानी की प्यास कैसे बुझेगी इस सवाल पर फिर क्या कहना, यह तो शायद पानी की किल्लत झेलते हुए हम सब भलीभांति समझ ही चुके हैं। 

जब कभी भी पानी की बात होती है तो नदियों, नहरों, पोखरों, तालाबों, कुंओं और बावड़ियों, खेतों और नलों घड़ों, मटकों, कलशों, बाल्टियों और लोटों  का प्रतिबिंब हमारे मानसिक पटल  पर अचानक से उभर आते हैं। लेकिन यह सब बाते अब कहीं इतिहास के पन्नों में ही  गुम सी हो चली है ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि लगातार बदलते परिवेश, रहन-सहन, बढ़ती आबादी, प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन, उद्योग-धंधों के विस्तार, शहरीकरण, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई  जिसका सीधा असर हमारे पर्यावरण और जलाशयों पर पड़ा है और यह अभी भी जारी ही है। जिस पर किसी तरह का नियंत्रण या कोई सकारात्मक परिवर्तन सिर्फ राजनैतिक बयानबाजी, दावों व सरकारी दस्तावेजों में दिखाई देते हैं और यथार्थ सच पर पर्दा पड़ा का पड़ा ही रह जाता है। 
फिर कहीं जब अचानक से पानी की किल्लत झेल रहे लोगों और खेतों में सूखे पड़ने की बात आती है तो उस पर खूब हो-हल्ला तथा हाय-तौबा मचाया जाता है। जिस पर सरकार तथा प्रशासन की ओर से त्वरित कार्यवाही के रुप में पानी के टैंकर तथा सूखे की मार झेल रहे किसानों को मुआवजा राशि दे दी जाती है जो कि काफी नहीं होता है। यह सिर्फ कुछ समय के लिए किया गया उपाय या प्रयास मात्र ही है। पानी की कमी जैसी गंभीर समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए कोई दूरगामी प्रयास व रणनीति किसी भी स्तर पर कहीं भी दिखाई नहीं देता। चाहे वह सरकार हो, या फिर प्रशासन हो, या कोई और संस्था और न ही लोगों द्वारा किसी सामूहिक प्रयास की कोई ठोस पहल होते नजर नहीं आती है, जिससे सरकार व प्रशासन की पानी आपूर्ति के प्रति उनकी जबावदेही सुनिश्चित हो सके।

दुनियाभर की लगभग आधी आबादी एशिया महाद्वीप में गुजर बसर करती है, लेकिन एक शोध के अनुसार यहां के लोगों को वर्ष 2050 तक पानी की भारी कमी का सामना करना सकता है। पानी की इस भारी कमी की अहम वजह लगातार बढ़ती आबादी और मौजूदा पर्यावरण संबंधी व आर्थिक समस्याएं भी सामने उभर कर आ सकती हैं। लगातार पानी की मात्रा में कमी होने का कारण केवल जलवायु परिवर्तन या पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं है, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन और पर्यावरण के प्रति बढ़ती मानवीय उदासीनता भी जिम्मेदार है।

हालांकि एशिया महाद्वीप की बढ़ती आबादी और संसाधानों की अधिक मांग के कारण पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है जिसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। हाँ, यह बात बिल्कुल सही है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव प्रकृति पर सबसे अधिक पड़ता है और जिसकी वजह से पर्यावरण संतुलन लगातार  बिगड़ता जा रहा है। जिस तरह से मौजूदा हालात हैं और समय रहते यदि कोई ठोस कदम पर्यावरण संतुलन की दिशा नहीं उठाये गए तो आगे आने वाले कुछ वर्षों में  एक बहुत बड़ी आबादी को गंभीर जल संकट का सामना करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

भारत के परिपेक्ष्य में यदि बात की जाय तो यहां पर बहुत बड़ी आबादी रहती है और प्राकृतिक संसाधनों की मांग व उसका दोहन भी बहुत भारी मात्रा में होता है जिससे पर्यावरण संतुलन का बिगड़ना स्वाभाविक सी बात है, जिस पर कोई दो राय नहीं है। लेकिन यह बात सिर्फ यहीं पर ही खत्म हो जाती तो कुछ और ही बात होती। पानी की कमी की समस्या के लिए लगभग चार कारक जिम्मेदार हैं-  जिसमें एक कारक पर्यावरण संतुलन में प्रतिकूल परिवर्तन है, दूसरा कारक पानी का प्रबंधन व  वितरण प्रणाली यानि कि लोगों तक पानी कैसे पहुँचा जाय (इसमें प्रशासन मुख्य भूमिका मे होती है) और तीसरा पानी की व्यवस्था (इसमें सरकार मुख्य भूमिका मे होती है)। जिन पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है और यह पानी की किल्लत जैसी समस्या के रुप में तथा राजनैतिक पार्टियों के राजनैतिक टकराव तथा उनके बीच होने वाली आपसी खींचतान के कारण अचानक से सबके सामने उजागर हो जाती है। जैसा कि अभी पिछले कुछ समय से हो रहा है। 

इस तरह की घटना कोई पहली बार नहीं है यह हमेशा से होता आ रहा है जिस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाये गयें है और सरकारों द्वारा  इस दिशा में क्या किया गया है यह तो न्यायपालिका की विशेष भूमिका निर्वाह से ही स्पष्ट हो जाती है।  कुल मिलाकर सरकारों का पानी आपूर्ति के प्रति रवैया हमेशा से ही उदासीन ही रहा है। हाँ यह एक अलग बात है पानी की राजनीति करने में कोई भी कहीं पीछे नहीं दिखाई देता। दुर्भाग्यवश राजनैतिक पार्टियों द्वारा पानी की राजनीति करना सिर्फ राजनीति के इर्द-गिर्द ही घूम कर खत्म हो जाती है। सरकार या प्रशासन द्वारा तात्कालीन व्यवस्था कर इस गंभीर मसले को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है और जनता के प्रति अपने दायित्वों की खानापूर्ति कर दी जाती है। जिसके परिणामस्वरुप पानी की किल्लत जैसी समस्याओं का अभी तक कोई दूरगामी हल निकाला नहीं जा सका है और भविष्य में इस दिशा में कुछ सकारात्मक पहल होगी इसकी भी संभावना कम ही दिखती है।

खैर पानी की कमी की आपूर्ति के लिए कोई हल निकाले या न निकाले पर पेयजल के लिए कार्पोरेट ने इसका मानवीय तरीका न ही सही पर व्यावसायिक तरीका तो जरूर ही निकाल लिया है। वैसे भी व्यवसाय का मानवता से कोई संबंध है या नहीं, यह सोचना बेमानी सा लगता है। क्योंकि जब किसी चीज की मांग लोगों के अनिवार्य आवश्यकतों से जुड़ी हो और जिस पर कोई समझौता नही सकता हो तब उसकी आपूर्ति करने के लिए कोई न कोई तरीका भी कहीं से निकल ही जाता है। लोगों की अनिवार्य आवश्यकताओं में से पानी भी एक है और फिर जब पेयजल की कमी जैसी स्थिति लगभग हमेशा ही बने रहे तो इसके व्यावसायिक मायने न निकले यह तो संभव ही नहीं है।

पानी की समस्या से जूझ रहे लोगों से यह बात हमेशा सुनने को मिल जाता है कि  “आजकल पानी लोगों तक नहीं पहुँचता है, बल्कि लोगों को उस तक पहुँचना पड़ता है, इस पर फिर क्या कहना। यदि हम पेयजल की बात करें तो पानी के छोटे पाऊच से लेकर बड़े आकार के बोतल तक बाजार में उपलब्ध हैं। यानि कि किसी भी व्यक्ति को अपनी पानी की प्यास बूझाने के लिए कम से कम 2 रुपये से लेकर लगभग 200 रुपये तक के साधन उसके आसपास मौजूद हैं। आखिरकार जब सरकारें सामान्य उपयोग में लाए जाने वाली पानी की व्यवस्था करने में ही नाकाम साबित हो ने लगे तो फिर उनसे पेयजल आपूर्ति की उम्मीद करना ही बचकानी सी बात लगती है।  

आखिरकार मजबूरन लोगों को बाजार की ओर रुख करना पड़ता है और पानी की बड़ी कीमत देकर अपनी प्यास बुझानी पड़ती है और करें भी तो क्या करें जब इसके अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प भी तो फिलहाल मौजूद नहीं है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि यह हालात सिर्फ महानगरों तक ही सीमित नहीं बल्कि यह छोटे गांवों और कस्बों में भी है जहाँ आसपास पानी के जल स्त्रोत नदी व नाले के रुप में मौजूद तो जरूर हैं। लेकिन उन नदियों का पानी प्रदूषण की मार झेलने के कारण दूषित हो  चुकें हैं जो कि बिल्कुल भी किसी उपयोग हेतु नहीं रह गयें हैं। रही बाते नालों व छोटे-मोटे जल स्त्रोतों की तो समुचित देखभाल के अभाव के कारण अथवा भू जल  स्तर में काफी कमी आने के कारण गर्मी आते ही सूखे की कगार पर होते हैं।

ऐसी स्थिति में पानी का बाजार अपने पांव बड़ी तेजी से पसारते जा रहे हैं। जिस पर  कोई सवाल खड़े नहीं हो रहे हैं और न ही किसी तरह का कोई विचार विमर्श करने जैसी स्थिति भी नजर नहीं आती और रही इस दिशा में कोई सकारात्मक प्रयास जैसी बात किसी भी तरह से किसी के भी द्वारा होता दिखाई नहीं देता। चाहे वह केन्द्र सरकारें हों या राज्य सरकारें या फिर प्रशासन जिनकी हर तरह की जबावदेही में से एक लोगों की जल आपूर्ति की जबावदेही भी शामिल है। लेकिन मौजूदा हालात कुछ और ही कहानी कहते हैं लोगों को पानी मुहैया कराने के लिए जिम्मेदार सभी व्यवस्थाएं व संस्थाएं जो कि अब धीरे-धीरे पानी से किनारा करते दिखाई दे रहे हैं। 

जब कोई सरकार अथवा प्रशासन लोगों की जल आपूर्ति के मामले पर उदासीन व लचर रवैया अपना रही रहे और पानी के नाम पर उभर रहे बाजार को अनदेखा करते हुए उस पर अपनी चुप्पी साधी रहे तो फिर पानी के व्यवसायीकरण को तो कहीं न कहीं मूक समर्थन मिल ही रहा है। पानी के व्यवसायीकरण के हालात अपने आप ही बन रहे हैं या फिर जानबूझकर ऐसे हालात बनाए जा रहे हैं यह बात साफ तौर से अभी कह पाना मुश्किल है लेकिन एक बात तो साफ तौर से कही जा सकती है कि पानी के नाम पर हमेशा से राजनीति होती आई है और शायद आगे भी होती रहेगी।

वैसे भी अब धीरे-धीरे कुछ ऐसे हालात बनते जा रहे हैं कि आम इंसान ने तो इस बारे में सोचना ही बंद कर दिया है कि कोई व्यवस्था या कोई संस्था है जो कि उनके लिए पानी की समुचित व्यवस्था करेगी। यदि किसी व्यक्ति को पानी की आवश्यकता है वह “अपना काम, अपने आप” करने के तर्ज पर अपनी आवश्यकता स्वयं ही पूरी करे। “आखिरकार जब पानी बाजार की शक्ल ले लिया हो तो किसी और से पानी  मिलने की उम्मीद करना बेमानी है।” आजकल पानी को लेकर इस तरह की बाते आम जनमानस की जुबान से सुनने को कहीं न कहीं मिल ही रोज ही मिल जाता है। 

हाँ, यह एक अलग बात है कि यह सब बाते मुख्यतः पेयजल के बारे में है, न कि पेयजल के अलावा अन्य कामों में इस्तेमाल होने वाले पानी के बारे है। लेकिन फिर भी इसका संबंध सीधे तौर से पानी से ही है, इस बात से भी तो इंकार नहीं किया जा सकता। कुल मिलाकर यदि पेयजल के बारे में यह कहा जाय कि स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था करना प्यासे व्यक्ति की खुद की जिम्मेदारी है न कि किसी और की, तो यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा।  

पानी की स्थिति को लेकर समय-समय पर कई सर्वे होते रहते हैं और पानी का रिपोर्ट कार्ड सामने आते रहते हैं। लेकिन हर रिपोर्ट में हमेशा यही बाते सामने आती रहती हैं कि भू-जल स्तर कम हो रहा है, नदियों का पानी दूषित हो रहा है, नाले सूखे के कगार पर हैं, तालाबों का पानी दूषित है या फिर वर्षा न होने के कारण सूखे पड़े हुए हैं। सर्वें के रिपोर्ट में दिए गए आकड़ों के द्वारा लगातार जल की कमी होने के प्रतिशत में साल दर साल इजाफा होने का प्रमाण देते हुए इस विषय की गंभीरता को भी दर्शाया जाता है। लेकिन जब तक लोग पानी के नाम पर सड़कों पर न उतर आयें और पानी मानव की जैविक आवश्यकताओं के दायरे में सीमित न रहकर राजनैतिक आवश्यकताओं के रुप में उसका विस्तार न हो जाय तब तक इस तरह की रिपोर्टों की परवाह किसे है। 

पानी के संदर्भ में यदि भारत का इतिहास देखा जाय पता चलता है कि भारत एक ऐसा देश रहा है जहाँ नदियों, झरनों तथा झीलों की बहुत अधिक भरमार सदियों से रही है और शायद ही विश्व में कहीं कोई ऐसा देश हो जहाँ पर भारत जैसी स्थिति रही हो या उससे अधिक की स्थिति में रही हो। बदलते समय के साथ-साथ पानी की तस्वीर भी आज बदली जा रही है  और भारतवासियों को पानी की किल्लत का आए दिन सामना करना पड़ता है तो इंसान सोचने को मजबूर हो जाता है और बीते समय को याद कर उसे थोड़ा आश्चर्य जरूर होता है लेकिन यही सत्य है क्योंकि भारत में नदियों व अन्य प्राकृतिक जल संसाधनों की कोई आज भी कमी नहीं है लेकिन ये सब प्रदूषण की मार झेल रहे हैं या फिर भू जल स्तर कम होने के तालाब व झील सूखे पड़े हुए है या फिर मानवीय उपेक्षाओं का शिकार होने के कारण विलुप्त हो गए और या फिर विलुप्त होने के कगार पर खड़े हैं। जिसके कारण जल संकट जैसी भयानक स्थिति की नींव पड़ चुकी है और यदि सब कुछ इसी तरह से ही चलता रहा तो आगे आने वाले समय में भारत भूमि से पानी का पतन होना भी कोई दूर की बात नहीं रह जाएगी। फिलहाल जो कुछ परिस्थितियां अभी बनी हुई हैं वे सब इसी ओर इशारा करती नजर आ रही हैं। 

भारत पानी के मामले में शुरु से ही संपन्न ही रहा है तो फिर समस्या क्या है यह जानना भी जरुरी है। यदि वर्तमान परिदृश्य में  इसे सतही रुप से देखें तो पाएंगें की पर्यावरण प्रदूषण व मानवीय उदासीनता तथा उपेक्षा ही जल संकट का कारण है जो कि सही भी है। लेकिन यदि इसे एक सामाजिक व्यवस्था के रुप में बारीकी से देखा जाय तो इस समस्या के मूल में जल प्रबंधन व उसकी व्यवस्था की कमियों का ही परिणाम नजर आएगा। जल प्रबंधन व उसकी व्यवस्था, जो कि सरकार व प्रशासन के नियंत्रण में होती है जिस पर प्रशासन की  उदासीनता तथा हरर सरकार की अवसरवादी खतरनाक राजनीति के चलते आज लोगों को आए दिन पानी की किल्लत का सामना करना पड़ता है।

जिस तरह से आए दिन पानी का बाजार फल-फूल रहा है उस हिसाब से देखा जाय आगे आने वाले दिनों में पानी सिर्फ पेयजल के रुप में ही सीमित न रह कर अपने व्यापक रुप में भी बाजार में नजर आएंगे और इस तरह की किसी संभावना से भी कोई इंकार नहीं किया जा सकता जिसकी झलक ज्यादातर गर्मी के दिनों में पानी टैंकर की गाड़ियों के रुप में दिखाई देना आम बात है और यह भी दिख जाता है कि पानी का व्यवसाय किस तरह से अपना पैर पसारते जा रहा है। रही बात पानी की किल्लत की मार झेल रहे लोगों की तो वे लोग अपनी पानी की आवश्यकता की पूर्ति के लिए व्यापारियों से उनकी मनचाही पानी की रकम देकर उनसे पानी खरीदने को मजबूर हैं। फिलहाल इन सब बातों से एक बात तो यह साफ हो जाती है कि आखिरकार मानव समाज विकास की राह पर चल रहा है या फिर किसी और राह पर......... 

टिप्पणियाँ