राजनीति
दक्षिण और पूर्वी भारत में भाजपा
की अग्नि परीक्षा
आज विष्व का सबसे बड़ा राजनैतिक दल होने का दावा
करने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समक्ष इस अप्रैल-मई में होने वाले चुनाव
एक अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। पष्चिमी भारत और उत्तर भारत में भाजपा आज एक सषक्त
राजनैतिक दल के रूप में अपनी जड़ें जमा चुकी है। लेकिन क्या वह बीते युग की
कांग्रेस की तरह सारे देष का प्रतिनिधित्व करने वाला राजनैतिक दल है? चार राज्यों और केन्द्र
षासित प्रदेष पान्डुचेरी के चुनाव इस बात का भी फैसला करेंगे। इसीलिये इन चुनावों
में ना कुछ होते हुए भी भाजपा का बहुत कुछ दांव पर लगा है।
दक्षिण भारत में केरल, तमिलनाडु व इससे लगे हुए
केन्द्र षासित पान्डुचेरी तथा पूर्वी भारत के सबसे बड़े राज्य पष्चिमी बंगाल में
एक बड़े राजनैतिक दल के रूप में भाजपा की स्थिति नगण्य है। हां असम में जरूर भाजपा
को एक षक्तिषाली दल के रूप में उभरने की आषा है। इसीलिये यह चुनाव राश्ट्रीय स्तर
पर महत्वपूर्ण नहीं है। यदि भाजपा इन चुनावों में कोई अच्छा प्रदर्षन न भी करें तो
उसकी प्रतिश्ठा पर कोई आंच नहीं आयेगी। प्रष्न यह है कि क्या कारण है कि भाजपा इन
राज्यों की विधानसभा चुनावों के बारे में इतनी गम्भीर दिख रही है।
यह सब निश्पक्ष दृश्टि रखने वाले लोग जानते हैं कि
केरल, तमिलनाडु
तथा पष्चिमी बंगाल के चुनावों में भाजपा कहीं भी दौड़ में नहीं है। यही हाल
पान्डुचेरी का भी है। हाॅं असम में जरूर पार्टी चुनावी दौड़ में है और यदि भाग्य
ने साथ दिया तो यह सम्भव है कि पार्टी गठबन्धन सरकार बनाने में सक्षम हो जाये।
इस अप्रैल-मई के चुनाव भाजपा के लिये दिल्ली और
बिहार की षर्मनाक पराजय से बिगड़ी अपनी छवि को ठीक करने का अवसर देंगे। साथ ही साथ
वह भाजपा को राज्यसभा में अपनी स्थिति सुधारने का अवसर दे सकते है बर्षत वह इन
चुनावों में अपने कुछ उम्मीदवारों को जिता पाये। लेकिन इससे भी ज्यादा यह चुनाव
इसीलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भाजपा यह सिद्व करना चाहती है कि मोदी लहर अभी
समाप्त नहीं हुई है और दिल्ली व बिहार के चुनावों में हार के बावजूद प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी की राश्ट्रव्यापी लोकप्रियता और छवि अभी बरकरार है।
अहंकार और बड़बोलापन सत्तारूढ़ भाजपा की मोदी-अमित
षाह - अरूण जेटली तिकड़ी का राजनैतिक चरित्र है। विनम्रता और राजनैतिक षालीनता
इनसे कोसों दूर है। इसी कारण भाजपा न इन चुनावों को भी प्रतिश्ठा का प्रष्न बना
लिया हैं यह एक ऐसी चुनौती है जो भाजपा ने स्वयं अपने लिये खड़ी की है। अब इस
चुनौती का सफलतापूर्वक सामना करना भाजपा की मजबूरी है।
लेकिन प्रष्न आज प्रतिश्ठा का नहीं है। इन चुनावों
द्वारा भाजपा अपनी राजनैतिक व सैद्धांतिक विचारधारा के लिये जनसमर्थन भी मांग रही
है। सब जानते हैं कि कम्युनिस्ट दल भाजपा के लिये कांग्रेस से भी बड़े राजनैतिक
षत्रु है। पहले जनसंघ और फिर उसकी वारिस भाजपा का प्रभाव रोकने में कम्युनिस्ट
घटकों ने बहुत बड़ी भूमिका अदा की है। फिर एकल राश्ट्रवाद, सनातन संस्कृति की
पुनःस्थापना और हिन्दुत्व राजनीति से जुड़े मंदिर और गोहत्या जैसे मुद्दों पर
भाजपा को सबसे तीखे विरोध का सामना इन कम्युनिस्ट दलों से ही करना पड़ता है जिन्होंने
केरल तथा पष्चिमी बंगाल में अपनी जड़ें बहुत गहरी जमा रखी हैं और इन दो राज्यों के
अपने सषक्त जनाधार के चलते वह राश्ट्र्रीय राजनीति में प्रभावषाली भूमिका निभाते
हैं।
सैद्धांतिक दृश्टिकोण से कहा जाय तो दक्षिणपंथी
भाजपा, वामपंथी
कम्युनिस्ट दलों के विरूद्ध इन चुनावों को निर्णायक युद्ध के रूप में देख रही है।
इन चुनावों द्वारा वह पष्चिमी बंगाल और असम को राजनीति में मुस्लिम प्रभाव भी
समाप्त करना चाहती है। कुछ-2 ऐसी ही बात केरल में भी है जहां
भाजपा का संघर्श ईसाई और बढ़ते हुऐ मुस्लिम प्रभाव को राजनैतिक रूप से कमज़ोर करना
है। इस दिषा में भाजपा कितनी सफल होती है यह तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे।
प्रधानमंत्री मोदी की आर्थिक रणनीति में बंगाल का
बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। दक्षिणपूर्व और सुदूर पूर्व के राश्ट्रों से करीबी
व्यापारिक संबंध बनाने और मेक-इन-इण्डिया जैसे प्रोग्रामों की सफलता के लिये बड़े
औद्योगिक आधार की घोर आवष्यकता है, जो केवल पष्चिमी बंगाल, विषेशतः
कोलकता ही दे सकता है। पष्चिम बंगाल से भाजपा का जुड़ाव भावनात्मक भी है। जनसंघ के
संस्थापक-अध्यक्ष डा. ष्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल से ही आते थे और यहां उनका जनाधार
बहुत मजबूत था। षायद नरेन्द्र मोदी यह समझते है कि यदि पष्चिमी बंगाल जैसे बड़े
राज्य का अगर उन्हें समर्थन मिल जाये तो वह राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.)
के कठोर बंधन से मुक्ति पा सकते हैं। यह खुला हुआ रहस्य है कि न तो ब्राहमणवादी
आर.एस.एस. मोदी से बहुत प्रसन्न है और न ही मोदी आर.एस.एस. की प्रषासन में बढ़ती
दखलंदाजी से अपने को सहज़ महसूस कर रहे हैं। पष्चिमी बंगाल में यदि उन्हें अच्छा
जनसमर्थन मिलता है और असम में भाजपा की गठबन्धन सरकार बनती है तो आर.एस.एस. के साथ
द्वन्द्व में नरेन्द्र मोदी की स्थिति बहुत मजबूत हो जायेगी।
प्रष्न यह है कि क्या वास्तव में भाजपा पूर्वी भारत
में कोई करिष्मा करने जा रही है? सबसे पहले हम पष्चिमी बंगाल को ही ले ले जो विधानसभा की 292 सीटों के साथ इन चुनावों में सबसे बड़ा राज्य है। वर्श 2011 में हुऐ पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा को पष्चिमी बंगाल में -----
प्रतिषत मत मिले थे और उसने विधानसभा की एक सीट जीत सकी थी।
लेकिन यदि एक मुहावरे का उपयोग किया जाय तो वर्श 2011 से हुगली में बहुत पानी
बह गया है। वर्श 2014 लोक सभा चुनावों के चलते पष्चिमी बंगाल
की मोदी लहर से प्रभावित हुआ और भाजपा को कुल मतों का 14
प्रतिषत प्राप्त हुआ। इन 14 प्रतिषत मतों के सहारे भाजपा ने
पष्चिमी बंगाल की 48 लोक सभा सीटों में दो पर विजय प्राप्त
की। पर पिछले 2 वर्शों में पष्चिमी बंगाल का राजनैतिक
वातावरण बहुत बदला है और राज्य में राजनैतिक समीकरण भी परिवर्तित हुऐ हैं। इसमें
सबसे महत्वपूर्ण है वाममोर्चे और कांग्रेस का साथ आना। साथ ही साथ ममता बनर्जी और
उनकी तृणमूल कांग्रेस की छवि भी भ्रश्टाचार और गुण्डागर्दी के आरोप के चलते खराब
हुई है। देखना यह है कि ममता बनर्जी से विमुख मतदाताओं का समर्थन किसे मिलेगा
भाजपा को या कांग्रेस वामपंथ को।
प्रारम्भिक संकेतों के आधार पर कहा जा सकता है कि
ममता बनर्जी फिर सत्ता में आयेंगी। हां उनकी पार्टी को पिछले चुनाव के मुकाबले
सीटें कम मिल सकतीं हैं। आकलन है कि कांग्रेस के साथ गठबंधन करके वाममोर्चा दूसरे
स्थान पर रहेगा और भाजपा तीसरे स्थान पर। यदि भाजपा पष्चिमी बंगाल में कुछ विषेश न
कर पायी और उसका मत प्रतिषत लोकसभा में प्राप्त मतों से भी कम हुआ तो इसके लिये वह
स्वयं दोशी होगी। पष्चिम बंगाल की राजनीति का चरित्र प्रगतिषील और पूंजीवाद-विरोधी
है। पूंजीवादी नीतियों का खुला समर्थन, मजदूर विरोधी नीतियां, महंगाई,
बेरोजगारी और अल्पसंख्यक तथा दलित-विरोधी छवि के कारण यदि भाजपा का
वोट प्रतिषत लोकसभा के वोट प्रतिषत से 50 प्रतिषत कम हो जाये
तो कोई आष्चर्य की बात नहीं होगी।
हां पूर्वोत्तर भारत के सबसे बड़े राज्य असम में
भाजपा की स्थिति काफी ठीक है। विगत लोकसभा चुनाव में भाजपा को 36.50 प्रतिषत मतों के साथ
राज्य की 14 में से सात सीटों पर सफलता प्राप्त हुई थी। असम
में ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि वहां भाजपा के जनाधार को कोई नुकसान पहुंचा हो।
फिर 15 वर्शों के षासन के बाद जनता तरूण गगोई और कांग्रेस
षासन से परिवर्तन भी चाहती है।
कांग्रेस ने चुनाव अभियान का पूरा दायित्व तरूण
गगोई पर छोड़ रखा है और केन्द्र का कोई बड़ा नेता असम में प्रचार का दायित्व नहीं
ले रहा है। गगोई अनुभवी और घाघ राजनेता है जो चुनावी राजनीति के मजे हुऐ खिलाड़ी
है। इसके विपरीत भाजपा के नेता अपेक्षाकृत अनुभवहीन है। फिर प्रष्न यह भी है कि
क्या असम गणपरिशद (ए.जी.पी.) से समझौता वास्तव में भाजपा के हित में कार्य करेगा।
जो भी हो असम का चुनाव भाजपा के लिये बहुत महत्वपूर्ण है और वह इसमें अपनी पूरी
षक्ति झोंक रही है।
दक्षिण के तमिलनाडु के चुनाव में दोनों राश्ट्रीय
दल - भाजपा और कांग्रेस रेस के बाहर है। चुनाव केवल अम्मा की एडीएमके और करूणानिधि
की डी.एम. के बीच है। भाजपा तो यहां राजनैतिक परिदृष्य के बाहर है, हां यदि डी.एम.के. को सफलता
मिली तो कांग्रेस को जरूर लाभ होगा। दोनों राश्ट्रीय दलों को मिला मत प्रतिषत केवल
आंकड़ों के हिसाब से ही महत्वपूर्ण होगा न कि राजनैतिक वर्चस्व के हिसाब से।
केरल की स्थिति विचित्र है। पष्चिमी बंगाल में
साथ-साथ चुनाव लड़ने वाले कांग्रेस ओर वाममोर्चा गठबंधन यहाॅं एक दूसरे के सबसे
बड़े प्रतिद्वंद्वी है। भाजपा रेस के बाहर है लेकिन इसे जनसमर्थन की आषा है जो कि
यह साम्प्रदायिक आधार पर प्राप्त करने का प्रयास कर रही है। भाजपा के नेता यह खुले
आम कहते है कि केरल भारत में मुस्लिम और ईसाई प्रचारकों का अड्डा बन गया है जो
यहां की हिन्दू संस्कृति के लिये बहुत बड़ा खतरा है। देखना है कि भाजपा की यह साम्प्रदायिक
प्रचार नीति 60 वर्शों से सम्यवादी प्रभाव में रहने वाले और प्रगतिषीलता का दिन-रात दम
भरने वाले केरल राज्य में कहां तक सफल होगी। यह चुनाव केन्द्र की राजनीति पर कोई
विषेश प्रभाव डाले या न डाले पर यह इंगित करने में अवष्य सहायक सिद्व होगे कि देष
की राजनीति किस दिषा में जा रही है।
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