आस्था का सैलाब ''सिहंस्थ-महाकुंभ'' 2016

आस्था का सैलाब ''सिहंस्थ-महाकुंभ'' 2016
* चन्द्रकान्त पाराशर

मेषराशिगते सूर्ये सिंहराश्यां बृहस्पतौ ।
उज्जयिन्यां भवेत कुम्भः सर्वसौख्य विवर्द्धनः ।।
सूर्य मेष राशि में एवं बृहस्पति सिंह राशि में जब आते हैं, तब उज्जयिनी (धारा) में सभी के लिए सुखदायक कुंभ योग आता है । चूंकि बृहस्पति सिंह राशि पर रहते हैं इसलिए सिंहस्थ कुंभ योग के नाम से यह प्रसिद्ध है ।
प्रत्येक 12वर्ष पर लगने वाला महाकुंभ - सिंहस्थ इस बार वर्ष 2016 में  22 अप्रैल से 21 मई तक मध्यप्रदेश के उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर सम्पन्न हुआ । प्रत्येक सनातन धर्मी की एक मात्र इ़च्छा इस महापर्व पर पवित्र नदी क्षिप्रा में स्नान कर सांसारिक आवागमन से मुक्ति अर्थात् मोक्ष प्राप्ति का रहता है ।
      पुराणों के अनुसार हिमालय की उत्तर दिशा में स्थित क्षीरसागर, जहां पर देवासुरों ने मिलकर समुद्र मंथन-कार्य किया था । मंथन के समय क्रमशः पुष्पक रथ, ऐरावत हाथी, परिजात पुष्प, कौस्तुभ, सुरभि, अंत में अमृत-कलश को लेकर स्वयं धनवंतरि प्रकट हुए थे, इन्होंने यह कुंभ इन्द्र को दिया था, इन्द्र ने अपने पुत्र जयन्त को सौंपा । देवगणों की सलाह पर जयंत उसे लेकर स्वर्ग की ओर दौड़ पड़ा था । यह देखकर दैत्याचार्य ने क्रोधित होकर दैत्यों को बलपूर्वक कुंभ कलश छीन कर लाने का आदेश दिया । देवासुर संग्राम होने लगा । 12 दिन तक युद्ध करने के बाद देवगण हार गए । इसी बीच पृथ्वी के कई स्थानों पर कुंभ को छिपाया भी गया था । जिन चार स्थानों पर कुंभ रखा गया था उन्हीं स्थानों पर तब से कुंभ योग पर्व  मनाया जाता रहा है । देवताओं के 12 दिन हर मृत्युलोक में 12 वर्ष होते हैं । यही वजह है कि प्रति 12 वर्ष के पश्चात कुंभ में स्नान के लिए यह महोत्सव मनाया जाता है ।
देवानां द्वादशाहोभिर्मत्यै द्वार्दशवत्सरैः
जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्ययाः ।।
सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति देवासुर संग्राम के समय अमृत कलश की रक्षा करते रहे । इन तीनों का संयोग जब विशिष्ट राशि पर होता है, तब कुंभ योग आता है     

गंगा द्वारे प्रयोगे च धारा गोदावरी तटे ।
कलसाख्योहि योगोहयं प्रोच्यते शंकरादिभिः ।।
      ग्ांगा द्वार(हरिद्वार) प्रयाग, धारा(उज्जयिनि), गोदावरी (नासिक) इन सभी स्थानों पर प्रति तीन वर्ष बाद कुंभ योग होता है लगभग 12 वर्ष बाद 1-1 स्थान पर महाकुंभ महोत्सव का आयोजन होता है ।
इस महाकुंभ में बाबा महाकाल की नगरी उज्जैन में हिन्दुओं की सनातन संस्कृति का अद्भुत रूप परिलक्षित हुआ । विश्वभर से आए असंख्य सनातन धर्मी आत्मीयजनों ने परम्पराओं के वशीभूत हो इहलोक व परलोक को सजाने-संवारने - शन्ति प्राप्त करने के लिए आस्था के इस महान पर्व पर इस नगरी में पदार्पण किया : पूरा शहर उत्सवमय माहौल में डूबा था, आप चाहे रात्रि में या दिन में इस शहर को देखने, भ्रमण के लिए निकलें - यह हमेशा जागृत अवस्था में ही मिला कहीं प्रखर वक्ता व्यास पीठ पर विराजमान होकर सनातन संस्कृति पर श्रीमदभागवत या शिवमहापुराण या राम नाम का गुणगान करते, उन सबकी मधुर ध्वनि कानों में पड़कर अनायास ही अपनी ओर खींच ले जाती है ।
बाबा महाकाल, कालभैरव व मंगलनाथ जी के अद्भुत व पवित्र दर्शन, क्षिप्रा नदी के पावन जल में स्नान, संत महात्माओं के शुभ आर्शीवाद लेते श्रद्धालुगण गद्गद हो परमपिता परमेश्वर के गुणगान करते दृष्टिगत होते हैं ।
लेखक सपत्नीक 5 मई को रेल द्वारा उज्जैन प्रातः 3.30 बजे पहुंचा था । इस वक्त उज्जैन उन्नीदी आंखें लिए अलसाया सा नहीं अपितु सभी प्रकार से जागृत अवस्था में मिला क्योंकि भरपूर रोशनी से सराबोर यह उज्जैयिनी नगरी आलोकमय थी, श्रद्धालुओं व स्थानीयजनों की आवाजाही रात्रि का एहसास ही नहीं होने दे रही थी ।
      प्रातः साढ़े पांच बजे श्री दत्त घाट पर स्नान किया और मां क्षिप्रा, बाबा महाकाल की इस धरा को प्रणाम किया । तद्परान्त बाबा महाकाल के दर्शन किए, खिरनी के फलों का सेवन किया, दोपहर बाद काल भैरव जी के दर्शन किए तदुपरान्त लगभग सायं 5 बजे के आसपास मंगलनाथ जी के दर्शनों को पैदल पंचकोसी परिक्रमा करने वालों के साथ-साथ चल दिए । अभी 1 किमी ही चले होंगे कि आंधी आने के साथ-साथ जोरों का तूफान व रिमझिम बरसात का आगाज़ हो गया, आंधी तूफान का यह विकराल रूप देखकर हमने पहले तो कहीं शेल्टर में रूकना उचित समझा, फिर पता नहीं ईश्वर इच्छा से हम दोनों भींगते हुए भी चलते ही रहे ।
मंगलनाथ जी से लगभग तीन फर्लांग की दूरी पर पहुंचे थे कि तूफान तेज हो गया, एक छोटी सी चाय की दुकान पर शरण ली । बड़े-बड़े होर्डिंग्स हवा में ताश के पत्तों की तरह उ़डकर गिर रहे थे, डर भी लग रहा था, लेकिन कहीं महाकाल महाराज पर विश्वास था, हम मंगलनाथ जी पहुंचे और दर्शन किए । अन्धेरा घिर आने को था, हम अपना गन्तव्य मार्ग ही भूल गए । लेकिन स्थानीय डयूटी पर तैनात गाइडों ने सहायता की ओर हमें आटो द्वारा महाकाल तक पहुंचाया गया । हम इस दिन कुल मिलाकर 18 कि0मी0 पैदल चले थे, इस समय थककर चूर थे लेकिन मन में एक उत्साह, लग्न व श्रद्धा थी कि हम महाकाल जी की इस नगरी में सुरक्षित हैं, फिर भूखी माता मंदिर-घाट से होते हुए, एक हथठेले पर बैठकर आपने गन्तव्य तक पहुंचे थे । यह एक चमत्कार ही था कि स्थानीय प्रशासन व श्रद्धालुओं के आगे तूफान हार गया, चारों तरफ खबर व चर्चा थी कि जगह-जगह विशालकाय पंडाल धूल धूसरित हो गए हैं जान व माल की क्षति भी हुई थी, हमने मार्ग में कई पंडालों को क्षत-विक्षत पड़े देखा था । संभवतः मीडिया ने इस अचानक आई हुई विपदा को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया था ।
लौकिक दृष्टिकोण से इस महाकुंभ में राज्य प्रशासन की व्यवस्था भरपूर थी, स्वच्छता, कुशल प्रबन्धन व राज्य आत्म अनुशासन का अदभुत मेल यहां देखने को मिला । इस सिहस्थ की तैयारियों की रूप रेखा राज्य प्रशासन द्वारा लगभग चार वर्ष पूर्व प्रारम्भ कर दी गई थी, क्षिप्रा के जल को दूषित होने से बचाने के लिए उसे ओजोनाईज किया गया, इस विशालकाय आयोजन की साज-संभाल के लिए मुख्यमंत्री महोदय द्वारा दिया गया एक मंत्र श्नौकरी नहीं यह सेवा का मौका हैश् - मोटिवेशन के लिए सफल सिद्ध हुआ । एक सिपाही से पूछा कि आप इतने संयम से इतनी-कभी उग्र व कभी शांत उमड़ती हुई भीड़ को कैसे संभाल पा रहे हो ? उत्तर था - हमें ष्क्रिया की प्रतिक्रियाष् करने को मना किया गया है । सबसे दीगर कार्य-नर्मदा के जल को क्षिप्रा में लाने का असंभव कार्य भी संभव किया गया मात्र 13 माह में जल को लिफ्ट कर क्षिप्रा से जोड़ दिया गया था ।
इस सिहंस्थ कुंभ की अवधि के दौरान प्राकृतिक आपदाएं भी आईं, भयंकर तूफान, वृष्टि ने जलथल एक कर दिया - एक बार तो व्यवस्थाएं चरमराती हुई सी भी लगीं लेकिन कुछ ही घंटों की मशक्कत के बाद स्थिति पर काबू पा लिया गया । राज्य प्रशासन साधुवाद का पात्र है करोड़ों लोगों के आगमन को देखते हुए प्रशासन 6-7 माह पहले ही स्थानीय निवासियों को आवश्यक टीकाकरण कर चुका था ताकि किसी भी प्रकार की विपदा से उन्हें बचाया जा सके, नहर नालियां की पक्की व्यवस्था की गई, मां शिप्रा में जल की कमी को सुदूर कलकल बहती नर्मदा के जल को पाईपों द्वारा लाकर पूरा किया गया ।
      सभी प्रकार के वाहनों को सभी घाटों से काफी दूर ही रोक दिया गया, सुरक्षाकर्मियों की पैनी नज़र व आवश्यक वैरिफिकेशन से सभी स्नान पर्व विशेषकर शाही स्नान पर्व कमोवेश बिना किसी बाधा-व्यवधान से पूरा हुए । सभी 13 अखाड़ों के साथ-साथ आम जन सामान्य के लिए एम्बुलेंस, चिकित्सक, पैरामेडिकल दल व चिकित्सा वाहन स्थान-स्थान पर डिस्पैसरी-दवाईयों की उपलब्धता आगन्तुकों के मन में एक विश्वास भी पैदा कर रहे थे कि व्यवस्थाओं के बीच स्नान कार्य भली भांति सम्पन्न हो गया । 
      क्षिप्रा के तट पर साढ़े 8 कि0मी0 लम्बे घाट बनाए गए, जहां विशेष के साथ-साथ आम जन भी सुगमता से स्थान लाभ ले रहे थे । स्नान के वक्त कोई भगदड या वदहवासी नज़र नहीं आई  । सब कुछ यंत्रवत सा घटित होता हुआ प्रतीत हुआ । यह आप पर निर्भर करता है कि आप क्षिप्रा जी में पवित्र स्नान के बाद वहीं आसपास बैठकर कितने घंटे पूजा-अर्चना-ध्यान पर पाते हैं । कोई रोकटोक नहीं थी । स्थानीय पुलिस, स्थानीय लोग बेहद सहयोगी की भावना से भरे हुए किसी भी आगन्तुक की सहायता करने को सदैव तैयार रहते थे - रेलवे स्टेशन, बस स्टैण्ड या आटो रिक्शा सभी में एक मर्यादित व व्यवस्थित वातावरण था ।
      संत समाज हमेशा ही शैव हो या वैष्णव दोनों ने ही श्री दत्त घाट व श्रीराम घाट पर एक ही समय अलग-अलग घाटों पर डुबकी लगाकर एकता का सबूत दिया । यदाकदा छुटपुट घटनाक्रमों को छोड़ दें तो कुल मिलाकर यह सिहंस्थ अपने साथ सनातन परम्पराओं के साथ बहुत कुछ लेकर आया था और अन्ततः समाप्त होते होते मानव जाति के लिए सुखद संदेश, आशाओं का भरपूर वितान  छोड़कर गया है और मानव केवल लौकिक रूप से दिखता हांड-मांस का पुतला ही नहीं है, वह संवेदनाओं व चेतनता का एक अहम अंश भी है । यह चेतना समस्त चराचर में व्याप्त हैफिर यही सत्य जीवन-मूल्यों की आधारशिला व प्रेरक तत्व भी है ।
   श्रीमदभागवतगीता में कहा भी गया है कि चेतनता किसी न किसी रूप में निरन्तर प्रवाहित होती रहती है -
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः
              न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्ं ।“’ 12/2

गोवर्धन परिक्रमा के मध्य स्थित योगिराज शैलेन्द्र शर्मा जी ने इसकी प्रकारान्तर से व्याख्या करते हुए लिखा हैकि -  चेतना किसी माध्यम से व्यक्त हो या न हो उसकी अव्यक्त यानि अभिव्यक्ति सदैव रहती है और यह मान लेना भी उचित नहीं है कि किसी भाव की अभिव्यक्ति पूर्ण हो जाने पर वह भाव ही समाप्त हो गया । किसी माध्यम से भाव व्यक्त हो या न हो, भाव की चेतना तो विद्यमान रहती ही है ।
अन्यंत्र भी कहा गया है कि :-
घटावभासको भानुर्घटनाशे न नश्यति ।
देहावभासकः साक्षी देहनाशे न नश्यति ।  (आत्म प्रबोध उप0)
                                   
अर्थात् जैसे घड़े का प्रकाशक सूर्य, घड़े का नाश हो जाने पर नष्ट नहीं होता, वैसे ही देह की प्रकाशक आत्मा देह के नष्ट होने पर नष्ट नहीं होती ।
      22 मई, 2016 को हुए अंतिम शाही स्नान में लगभग 75 लाख श्रद्धालुओं की डुबकी के साथ इस वर्ष का सिंहस्थ महाकुंभ अब 9 अप्रैल 2028 में पुनः आने का आश्वासन देकर भावभीनी विदा ले गया और छोड़ गया हमारे बीच समरसता, भाईचारा, बन्धुत्व परम्पराओं का सम्मान करना व विशेषकर मानव को मानव ही बने रहने का सर्वोत्तम संदेश जैसे - जीवन मूल्य । 
      अमृत की गिरी हुई बूदों की प्राप्ति में ही मानव जीवन की सार्थकता है । तकनीक सोशल मीडिया के इस युग में - आंतरिक शान्ति व द्वन्द्व से मुक्ति हेतु मानव द्वारा आयोजित इस महापर्व में निश्चित रूप से अमरत्व की प्राप्त का मार्ग प्रशस्त किया होगा ।
इति !!!


     



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