संत की परिभाषा - निरंतर ऊर्ध्वगती की जिज्ञासा


Ishan Shivanand

संत की परिभाषा - निरंतर ऊर्ध्वगती की जिज्ञासा

दो प्रकार के श्रद्धालु होते हैं - पहले जो भगवान से प्रार्थना करते हैं की उन्हें जीवन के कष्टों से बचा लिया जाए, दूसरे जो भगवान से शक्ति माँगते हैं जिससे की वह उस शक्ति का सदुपयोग कर अपने उद्देश्य की प्राप्ती कर सकें| दूसरे प्रकार का व्यक्ति ही संत कहलाने के लायक है, एक विजई मनुष्य वही है|

जो मनुष्य भयभीत रहता है, वह हर हमेशा एक रक्षक की खोज में रहेगा और ऐसा मनुष्य हमेशा लुकाछुपी का खेल खेलता हुआ ढाल ढूँदने में अपना जीवन व्यर्थ कर देगा| जो पहला मनुष्य है वह वाकई बलशाली है, उसके लिए कोई भी परिस्थिति प्रतिकूल नहीं है और विषम परिस्थति आने पर भी वह डटकर उसका सामना करेगा और ज़रूरतमंदों का मार्गदर्शक बनकर उभरेगा| ऐसा मनुष्य ही आविष्कार को जन्म देगा, अपने जीवन को सार्थक करेगा|
यदि आप मेरे से पूछें की संत कौन है? मेरा उत्तर होगा की हर वो मनुष्य जो जीवन के हर मोड़ पर सीखने का भाव रखता है और जो हर कठिन घड़ी को जीवन में आगे बढ़ने के अवसर स्वरुप देखता है, चाहे वह कठिन घड़ी हो बीमारी, दर्द, पीड़ा या संताप, ऐसा मनुष्य संत है|
यदि हम पीड़ा की बात करें तो इतिहास हमारा अध्यापक है की कोई भी ठोस वस्तु सुख में रह कर, आराम के दायरे में रहकर नही बनाई गई| मनुष्य का विकास आलस्य से नहीं हुआ| विकास का आधार ही थी विषम परिस्थ्तिति, विकट समस्या, बाधा| बाधा को पार करने हेतु लिए गये कदम ही क्रमिक विकास का कारण बने| और विकास केवल शरीर का नहीं, मन का भी| जीव जंतुओं ने भी क्रमिक विकास का जीता जागता उद्हारण पेश किया|
मछलियाँ उद्भव करते हुए जलचरों की योनिः में रूपांतरित हुई और वह जलचर पक्षियों की योनि में ढल गए, पक्षी उद्भव करते हुए स्तनपायी जीवों में परिवर्तित हुए, इत्यादि ऐसा प्रकृति में उद्भेद का क्रम चला| और हर वह जीव जिसने विकास किया, उसने स्वीकार किया की परिस्थिति कठिन है और ऐसा होने से ज़रूरत है अपनी क्षमता और सूझ बूझ से समस्या का समाधान करने की| ऐसे ही सोच है जो हमें जीवन में सफलता की राह पर कहीं ना कहीं ले जाएगी, जिसे जीवविज्ञानी हरबर्ट स्पांसेर ने "सरवाइवल् ऑफ द फिटेस्ट" की संज्ञा दी|
योग्य व्यक्ति वह नहीं है जो भाग्यवादी बनकर हिम्मत हार जाए, बल्कि वो है जो मुसीबत का डटकर सामना करे और उस मुसीबत से उपर उठकर एक बेहतर इंसान के रूप में दिखाई पड़े|
गौरतलब है की आज पृथ्वी और पृथ्विवासी जहाँ हैं, वे इसलिए हैं क्योंकि प्रकृति में बदलाव आया - कितने उल्कपिंड गिरे, कितने ज्वालामुखी फटे, कितनी बार अकाल पड़ा, बाड़ आई, कितनी ही बार कितने ही जीव लुप्त हुए और ऐसा नही है की यह क्रम अंत हो गया है| यह क्रम चल रहा था, चल रहा है और चलता रहेगा| जब जब भी पृथ्वी पर संकट आया, तब तब अंततः कुछ बेहतर परिणाम निकल कर आया और मनुष्य का उदगम भी ऐसे ही हुआ|
आज हम सुकून की ज़िंदगी जी पा रहे हैं क्योंकि हमारे पूर्वजों ने तपस्या करी, अपनी चेतना का विकास किया, शुरुआती संकटों से उभरकर हमारा जीवन खुशहाल किया| तपस्या का अर्थ था की हमारा कैसा भी भाग्य निर्धारित हो, उसे हम साधना के माध्यम से बदल देंगे| चाहे असुर हों या देवता, हर श्रेणी के जीवों ने तप किया और अपना भाग्य बदला|
किंतु आज, ऋषि मुनियों के ही वंशज, हम सभी मानव, साधना को मानो पूर्णतः भुला चुके हैं| गर्व तो हमें बहुत है इस संस्कृति पर, ऐसे स्वर्ण इतिहास पर, हमारे ऋषि पूर्वजों पर, किंतु इस संस्कृति, इस इतिहास की रीड की हड्डी, साधना से हम अज्ञात हैं|
यह इतिहास हमारा है, इसको सिद्ध करने के लिए, दर्शाने के लिए हमारे पास वह शैली नहीं है| हम ऐसा कोई भी कर्म नही कर रहे हैं जिससे की हम यह दर्शा पाएं की हम उन्ही महानुभावियों के, दिव्य आत्माओं के वारिस हैं| सोचने की बात है की क्या हमने अपने जीवन में तपस्या को ढाला है या अभी भी हम भाग्य को, गुरु को, गृहों को कोस रहे हैं? क्या हम अपने दुर्भाग्य का बोझा काले जादू पर डाल रहे हैं? क्या बलि का बकरा हम समाज को बना रहे हैं?
अपने बुरे भाग्य के लिए दोषारोपण का खेल खेलते हुए हम यह रवैय्या भी अपना लेते हैं की हमारी दुविधा के लिए प्रकृति ज़िम्मेदार है और जब तक पकृति कुछ नहीं करती, हम भी अपनी गैर ज़िमेदाराना सोच को टस से मस नही होने देंगे|  हमें स्वयं को यह याद दिलाना पड़ेगा की जब तक हम खुद नही बदलते, किसी तीसरी वस्तु के बदलाव से हमारे अंदर कोई बदलाव नही आएगा| एक शिवयोगी होने के नाते हमें यह समझना होगा की हर परिस्थिति में, हर घड़ी में हमें अपने आपको ढालना होगा, न की परिस्थति बदलने की राह देखते रहना|
दर्द, पीड़ा और दुख केवल लक्षण हैं उस सोच के जो भाग्यवादी है, जो दुर्भाग्य के सामने घुटने टेक देती है और ऐसा ढीठ रुख़ अपनाती है -

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