भयावह आग जंगलों की

भयावह आग जंगलों की
खेत-खलिहान


वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा से उत्तराखण्ड अभी ठीक से उबर भी नहीं सका था, कि जंगलों की भयावह आग ने एक बार फिर से इस प्रदेश को आपदा के आगोश में ले लिया। सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो वर्तमान में प्रदेश का 2876 हेक्टेयर वन क्षेत्र दावानल का शिकार है। फरवरी माह से अब तक वनाग्नि की 1371 घटनाएं हुई। वनाग्नि से 4 व्यक्तियों की मौत और 14 लोग झुलस गए। विभिन्न विभागों के दस हजार से अधिक कार्मिकों को आग बुझाने के काम पर लगाया गया है। प्रधानमंत्री कार्यालय की सक्रियता के बाद एयरफोर्स के एमआई-17 हेलीकाप्टरों के साथ नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स (एन डी आर एफ) की कई टीमें आग बुझाने में लगी हुई हैं।

उत्तराखण्ड में जंगलों में आग की यह कोई नई बात नही है। आमतौर पर गर्मियों के मौसम में प्रदेश के जंगल प्रतिवर्ष दावानल के शिकार बनते हैं। वनाग्नि पहले भी कई मर्तबा भारी तबाही मचा चुकी है। वर्ष 2005 में 3226 हेक्टेयर, 2012 व 2013 में लगभग 2800 हेक्टेयर वन क्षेत्र आग की चपेट में था। जंगलों में लगातार लग रही इस आग के संदर्भ में जंगल के कानूनों के साथ-साथ वन प्रबंधन की सरकारी सोच और नीति पर प्रश्न-चिह्न लगना स्वाभाविक है।

दरअसल, वन संरक्षण अधिनियम-1980 जेसे कानूनों ने जंगलों के साथ स्थानीय समुदायों की पारस्परिक भागीदारी को समाप्त कर दिया। पूर्व में स्थानीय लोगों की जंगलों पर कई तरह की निर्भरता थी। घास-चारे के साथ-साथ सूखी लकड़ियां आदि उठाने के अधिकार स्थानीय समुदायों को थे। इस कारण वे जंगलों के साथ पारस्परिक संबंध रखते थे और वनों के प्रति संवेदनशील बने रहते थे। ‘‘चिपको’’ जैसे आंदोलन की चर्चा इस संदर्भ में प्रासंगिक होगी। जब स्थानीय समुदायों ने अपने जंगलों को सरकारी दोहन से बचाने के लिए पेड़ों से चिपककर पर्यावरण संरक्षण का एक अद्भूत संदेश दिया था। मगर 1980 के वन संरक्षण अधिनियम ने स्थानीय समुदायों को जंगलों से मिलने वाले उनके पारंपरिक हक-हकूकों को छीन लिया। इस कानून ने जंगल के परंपरागत रखवालों को उससे दूर कर दिया। स्थानीय समुदायों का जंगलों से रिष्ता टूट गया। जंगल पूरी तरह से सरकारी संरक्षण में आ गए। दूसरी तरफ, वन महकमे को जंगलों के संरक्षण के लिए न पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराये गए और न उनके पास ऐसा कोई तंत्र है, जिससे वे निरंतर वनों की माॅनिटरिंग कर सके। सरकारी तंत्र की अदूरदर्शिता कथित पर्यावरणविदों व न्यायालयों की अति सक्रियता के चलते भी वन कानूनों में अव्यवहारिकता बढ़ती गई। दूसरी तरफ, जनसहभागिता ताक पर रख दी गई।

पूर्व में जंगलों को आग से बचाने के लिए ‘फायर लाइन’ बनाई जाती थी। यह आग पर नियंत्रण का परंपरागत व कारगर तरीका था। मगर वन विभाग इन फायर लाइनों को ही भूल गया। वन विभाग प्रतिवर्ष अग्नि नियंत्रण के लिए भारी-भरकम धनराशि खर्च करता है, फिर भी वनाग्नि को रोका नहीं जा पा रहा है। वनों में आग के पीछे जो प्रमुख कारण बताये जाते हैं उनमें एक, स्थानीय ग्रामीणों की भूमिका मानी जाती है। माना जाता है कि स्थानीय लोग अच्छे चारे व घास-फूस के लिए जंगलों में आग लगाते हैं। दूसरा कारण, वन विभाग को ही समझा जाता है। स्थानीय ग्रामीण आरोप लगाते हैं कि वन विभाग को प्रतिवर्ष वन संरक्षण, संवर्धन व वृक्षारोपण के लिए मोटा बजट मिलता है। विभाग वाले कागजों में पूरे काम दिखाकर वनों में आग लगा देते हैं, ताकि फर्जीवाड़ा सामने न आ सके। इसके अलावा कई बार लोगों द्वारा असावधानीवश जली बीड़ी, सिगरेट आदि फेंकने से भी आग लगने की घटनाएं सामने आती हैं।

उत्तराखण्ड में वनाग्नि के भयावह रूप लेने के पीछे एक अन्य कारण चीड़ के वृक्षों की बहुतायत भी है। प्रदेश के 34 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में लगभग 18 प्रतिशत क्षेत्र में चीड़ के वृक्ष हैं। वनाग्नि को भड़काने में चीड़ के पत्ते (पेरूल) पेट्रोल की तरह काम करते हैं। चीड़ के वृक्षों को हटाकर चैड़ी पत्ती वाले वृक्षों का रोपण किये जाने की बात समय-समय पर विभिन्न स्तरों पर की जाती रही हैं। मगर इस संबंध में अभी तक कोई ठोस पहल नही हो सकी है।

बहरहाल उत्तरांखण्ड के जंगलों में लगी आग जहाॅ चिंता की लकीरें पैदा करने वाली हैं, वहीं हमारी व्यवस्थागत सोच को भी प्रदर्शित करती है। प्रतिवर्ष जंगलों के रूप में प्रदत्त अनमोल विरासत आग की भेंट चढ़ जा रही हैं। दुर्लभ जड़ी-बूटियों, वनस्पतियों के साथ-साथ वन्य जंतु राख बन जा रहे हैं। वनाग्नि पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन का बढ़ा कारक बन रही है। आग पर्यावरण में ऐसा प्रभाव उत्पन्न कर सकती है, जिससे उभरने में शताब्दियाॅ लग सकती हैं। लिहाजा अब समय आ गया है कि इस समस्या की गंभीरता को समझा जाए और इसके निदान के लिए ठोस कदम उठायें। साथ ही अव्यवहारिक वन कानूनों की समीक्षा कर वन संरक्षण व प्रबंधन में स्थानीय समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित की जाय।

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