जरूरी नहीं कि हर वक्त लबों पे खुदा का नाम आए।

जरूरी नहीं कि हर वक्त लबों पे खुदा का नाम आए।
वो लम्हा भी इबादत का होता है, जब इंसा किसी के काम आए।।

- जगदीश चावला -

जेंकुई के पिता एक समुराई थे। एक दिन जेंकुई किसी नए शहर  में गया और वहां किसी बडे़ अधिकारी के सहायक के तौर पर काम करने लगा। इसी दौरान उसे उस अधिकारी की पत्नी से प्यार हो गया, पर इसका भेद खुलते ही उसने उस अधिकारी को मार दिया और उसकी पत्नी को लेकर वहां से किसी दूसरे शहर में चला गया। बाद में वह अधिकारी की पत्नी को छोड़कर एक भिक्षुक बन गया। ऐसे में उसने सोचा कि मैं हर वक्त ईश्वर को याद करता हूं तो क्यों न कोई ऐसा काम करूं जिससे मेरे किए का प्रायश्चित भी हो जाए और लोगों का भला भी हो। ऐसे में अपनी यात्रा के दौरान उसने एक बड़ी खतरनाक सड़क देखी जो एक घुमावदार चोटी पर बनीं थी और उसका रास्ता भी काफी खतरनाक था जिसपर जाने से कई लोगों की मौत भी हो चुकी थी।

ऐसे में जंेकई ने लोगों की परेशानियों को समझ कर यह फैसला लिया कि वह पहाड़ को बीच में से काटते हुए एक सुरंग बनाएगा ताकि लोगों को आने-जाने में आसानी हो। इस कार्य के लिए जेंकई दिन में भिक्षा मांगता और रात में सुरंग की खुदाई करता। ऐसा करते-करते करीब 30 साल गुज़र गए। पूरी सुरंग बनने में अभी 2 वर्ष बाकी थे कि एक दिन उसी अधिकारी का बेटा जेंकई को ढूंढते-ढूंढते वहां पहुंच गया। वह अपने पिता की मृत्यु का बदला लेना चाहता था। जब जेंकई ने यह जान लिया उस अधिकारी का बेटा उसे मारे बिना छोडे़गा नहीं तो उसने अधिकारी के बेटे से कहा, ‘‘मेरी सुरंग की खुदाई दो साल में पूरी हो जाएगी। सुरंग का काम पूरे होते ही मैं खुशी-खुशी तुम्हें आत्मसमर्ण कर दूंगा और तब तुम मुझे मार देना।’’

लड़के ने जेंकई की बात मान ली। वह रोजाना जेंकई के परिश्रम को देखता परन्तु वह वहां बैठे-बैठे थकने लगा अंततः अपनी बोरियत को दूर करने के लिए वह भी जेंकई की मदद में जुट गया और इस तरह एक साल बीत गया। आखिरकार जब सुरंग बनकर तैयार हुई तो जेंकई ने उस लड़के से कहा, ‘‘मेरा काम पूरा हो गया है। अब तुम चाहो तो मुझे मार सकते हो। मैं तुम्हारे सामने मौजूद हूं।’’

यह सुनते ही उस लड़के की आंखों में आंसू आ गए और वह कहने लगा, ‘मैं ऐसे इंसान को कैसे मार सकता हूं, जिसने अपने काम के दौरान एक बार भी ईश्वर को नहीं पुकारा बल्कि ईश्वर के बनाए बंदों के लिए 2280 फीट लम्बी, 20 फीट उंची और 30 फीट चैड़ी यह सुरंग बना कर उनका जीवन आसान कर दिया।

इसीलिए मैं अक्सर यही कहता हूं कि दुआ करने वाले हाथों किसी की मदद करने वाले हाथ ज्यादा पवित्र होते हैं।  
बंटवारे से पहले मेरे नाना पाकिस्तान के बडे़ जमीदारों में गिने जाते थे। उनहें यह मालूम रहता था कि अनाज की कमी के कारण किस घर का चूल्हा नहीं जला। ऐसे में जिस गरीब का परिवार अन्न के अभाव से त्रस्त होता वे अपने नौकरों की मार्फत उस घर में गेहंू अथवा आटे की बोरी और कुछ नकद पैसा भिजवा दिया करते थे। लेकिन ऐसा करते समय वे अपने नौकरों को सख्त हिदायत देते थे कि उस परिवार को यह मत बताना कि यह अनाज किसने भेजा है। जब नौकर नाम नहीं बतलाते थे तो घर बैठे महीनों भर की वह रसद पाने वाले कितने कृतज्ञ हो जाते थे, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

मेरे नाना प्रायः कहते थे कि शिवलिंग पर ऐसा दूध चढ़ाने से क्या फायदा जो बाद में किसी गटर में बहता नजर आए, और किसी मज़ार पर ऐसी रेश्मी चादरें चढ़ाने से क्या लाभ जो उसी मज़ार के पास बैठे और ठंड से मरते किसी फकीर की सर्दी तक न मिटा सके। चर्च में मोमबत्तियां जलाने से किसी गरीब की झोपड़ी को रोशन करना ज्यादा अच्छा है। पर अब वह दौर नहीं रहा आज का युग उस भौतिकता पर टिका है जहां हर मुद्दा अंततः नफे और नुकसान की तराजु पर तोला जाता है। ऐसे में अगर हमारी संवेदनशीलता छीजती दिखलाई देती है तो यह हमारी बदलती सोच का परिणाम है। आदमी की कशमकश जीवन भर चलती रहती है। जन्म, पढ़ाई, करियर, प्यार, ‘ाादी, नौकरी, तरक्की आदि के सवाल यदि प्लानिंग से चल रहे हो तो भी कुछ लोगों की अनिश्चितताएं उनका साथ नहीं छोड़ती और ज़रा सी मुसीबत आने पर उन्हें सिर्फ अल्लाह या भगवान ही यादा आता है।

मेरे कहने का मंतव्य यह नहीं है कि आप अल्लाह या भगवान को याद न करें। पर आप उन इंसानों की मदद पहले करें जिनके दिलों में आपकी ही तरह से भगवान की मूरत समाई है और जो किन्हीं विकट स्थितियों में जी रहे है। ‘ाास्त्रों में जिस भक्ति या इबादत का उल्लेख मिलता है, उसकी चर्चा बडे़ प्रवचनांे में होती है। लेकिन जो भक्ति खेत की मेढ़ों, गांव की चैपालों और खुद इंसान के अंदर होती है, वह इंसान के अंदर होती है, वह यह नहीं पूछती कि तुमने किस विधि से परमात्मा को परिभाषित किया या फिर किस कारण से दूसरे इंसान की मदद की। दूसरे लोगों की मदद करना तभी संभव होता है जब आप स्वतः इसके लिए तैयार होते हैं और बदले में किसी प्रशंसा या इनाम की हसरत नहीं रखते। 

अभी पिछले दिनों ‘ाब-ए-बरात के मौके पर मुस्लिम समाज के कुछ युवकों ने सड़कों पर जो हुडदंग मचाया और ट्रªैफिक-नियमों को तोड़ा, उसके लिए कई युवकों के वाहन जब्त कर लिए गए और उन पर जुरमाना भी लगाया गया। लेकिन इन्हीं युवकों में से कुछ लड़कों ने सड़क हादसे में घायल एक परिवार के चार सदस्यों को न केवल उनकी क्षतिग्रस्त कार से बाहर निकाला बल्कि वे उन्हें उपचार के लिए निकट के अस्पताल में भी ले गए। ऐसे में घायल लोगों के दिल में उन मददगार युवकों के लिए कितनी दुआएं निकली होंगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। तभी तो कहते हैं कि ‘हर रिश्ते का नाम जरूरी नहीं होता दोस्त; कुछ बेनाम रिश्ते भी रूकी जिंदगी को सांस देते हैं।’

वैसे तो पानी की किल्लत हर जगह महसूस की जाती है। ‘ाहरों से अब वे कुंए, बावड़ी और प्यास भी लुप्त हो चुके हैं जहां से लोगों की प्यास बुझती थी। अब तो सवत्र्र बोतलबंद पानी बिकता नजर आता है। ऐसे में यदि किसी गरीब के पास पानी की बोतल खरीदने के पैसे न हों और वे किसी फुटपाथ पर आते-जाते राहगीरों को कातर दृष्टि से देखते हों, तो भी वहां से गुजरने वालों को उनकी प्यास दिखलाई नहीं देती। लेकिन मैंने पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले एक ऐसे बच्चे को देखा जिसने अपनी वैन रूकवा कर पानी से भरी अपनी बोतल सड़क के किनारे बैठे एक वृद्ध दंपत्ति को दे दी। अब उस बच्चे की इस सदायशता को आप क्या कहेंगे? यही ना, कि उसने इंसानियत का फर्ज निभाया। तो ऐसा कर्ज हर किसी को निभाना चाहिए।

एक बार दिनबंधु एंडूज से मिलने एक ईसाई सज्जन सुबह सवेरे आ पहुंचे। दीनबंधु ने उनका काफी स्वागत सत्कार किया। फिर अपनी घड़ी देखकर बोले, ‘ओह, दस बज गए। माफ करना मुझे चर्च जाना है। मैं किसी और दिन आपसे बात करूंगा।’ यह सुनते ही वह सज्जन बोले, ‘‘चर्च तो मुझे भी जाना है। चलिए, मैं भी चलता हूं।’’ तब दीनबंधु ने कहा, ‘मगर मैं उस चर्च में नहीं जा रहा हूं, जहां आपको जाना है।’ तब उस व्यक्ति ने बडे़ आश्चर्य से पूछा कि आप किस चर्च में जा रहे है? मुझे भी अपना चर्च दिखलाइए। तभी दीनबंधु उसे अपने साथ एक निर्धन बस्ती में ले गए। जहां एक टूटी फूटी झोपड़ी थी। उस झोपड़ी के अंदर एक वृद्ध चारपाइ्र पर पडे़ एक बालक को पंखा झल रहा था। दीन बंधु ने उससे पंखा हाथ में लेते हुए कहा, ‘अब आपका समय ड्यूटी पर जाने का है। इस अनाथ बच्चे की सेवा और देखभाल मैं करूंगा। आप इत्मीनान से अपने काम पर जाइए।’ इसके बाद दीनबंधु ने उसे बताया कि यह झोपड़ी मेरा चर्च है और इस ज्वरग्रस्त बालक की सेवा मेरी इबादत है। यह सुनते ही उस व्यक्ति की आंखे नम हो गई और उसका मन दीबंधु के प्रति श्रद्धा से भर गया। 

जीवन में ऐसे कई अवसर आते हैं जो हमें अपनी इंसानियत को प्रमाणित करने का मौका भी देते हैं। अभी उत्तर प्रदेश के एक गांव में रहने वाले एक मुस्लिम व्यवसायी ने एक हिंदू युवती का विवाह उसी की जाति के एक लड़के के साथ पूरे रीति-रिवाजों के साथ सम्पन्न कराया जबकि उस लड़की के माता-पिता और रिश्तेदारों में से कोई भी आगे नहीं आया। उस लड़की का दुल्हा अब उस मुस्लिम व्यवसायी से इतना अभिभूत है और वह कहता है कि मानवता के कामों में हिंदु-मुस्लिम के सवाल खडे़ करना जायज नहीं है। इंसानों ने ही धर्म को बनाया है ना कि धर्म ने इंसानों को। इस लिए हमें वही काम करने चाहिए जो हमारे अन्र्तमन को लकवाग्रस्त न होने दें। वैसे भी जिस मालिक ने यह सृष्टि बनाई है उसका नूर जर्रे-जर्रे में है। यदि आपको उससे इश्क है तो वही इश्क सबसे करो, क्योंकि उसकी इबादत का यही दस्तुर है।

मैं ऐसे कई डाक्टर, इंजीनियर, वकील और अध्यापक भी देखे है जो सामने वाले की मजबूरी को देखकर उनसे कोई फीस तक नहीं लेते, लेकिन उनकी तादाद नगण्य है। मैंने ऐसे इंसान भी देखे है जिनके बदन पर लिबास नहीं होता और ऐसे लिबास भी देखे है जिनमें इंन्सान नहीं होता। ऐसे लोगों में कोई हालात को नहीं समझता तो कोई जज्बात को नहीं समझता। फिर भी अपनी-अपनी समझ होती है कि कोई कोरा कागज़ भी पढ़ लेता है तो कोई पूरी किताब नहीं समझता। मतलब ये कि यदि आप कोई इंसानी फर्ज़ निभाना भी चाहते हैं तो ऐसे बादल न जो आपके बरसने की आस में टकटकी लगाए किसी ‘ाख्स को नाउम्मीद कर दे। सर सजदे में हो और दिल में दगाबाजी हो तो ऐसे सजदों को उपर वाला भी कबूल नहीं करता। एक पश्चिमी विद्वान का कहना है कि किसी जरूरतमंद को इंसानी फर्ज के तहत दी गई आपकी सहायता का आर्थिक मोल भले ही कुछ न हो लेकिन वह कई लोगों का दिल जीत सकती है। 

‘बजरंगी भाईजान’ फिल्म में जिस तरह से सलमान खान को संयोग से भारत आने वाली एक मासूम और गंूगी लड़की को पाकिस्तान में पहुंचाने की कहानी कई लोगांे के दिलों को झझकोरती है और कईयों की आंखे नम कर देती है वैसी इंसानियत सिर्फ सिनेमानी परदे पर ही संभव है। वास्तविक जीवन में ऐसी बातों को दोहराना किसी के लिए भी आसान नहीं है। लेकिन भारत-पाक विभाजन के दौरान भड़काई गई सांप्रदायिककता की आग में जो भीषण नर संहार हुआ उसमें लाखों लोग मौत के घाट उतार दिए गए थे। यह वह दौर था जब दोनों तरफ के जनूनी लोगों ने बरसों से दोस्त रहे हिंदू और मुसलमानों को मारकर अपना रक्तस्नान किया लेकिन तब भी कुछ ऐसे हिंदु-मुसलमान और सिख लोग थे जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए दूसरे मजहब के लोगों को न केवल अपनी पनाह दी बल्कि उन्हें उनके सुरक्षित ठिकानों पर भी पहुंचाया। मैं आज भी ऐसे लोगों को सलाम करता हूं जिनकी बदौलत कई लोग जनूनी भीड़ की मारकाट से बच गए और जिन्हें आज भी अपनी सांझाा तहजीब पर गर्व है। साम्प्रदायिक दंगों में तो कई लोग पीड़ित जनों के मकानों की इंटें तक उठाकर ले जाते हैं। लेकिन मैं उन लोगों को मसीहा मानता हूं जो किसी भी पीड़ित का घर जलने नहीं देते, या फिर वहां पर अंगद में खडे़ होकर उस पीड़ित के मकान को फिर से बनवाने का काम करते है और इसे ही अपनी इबादत समझते हैं। 

एक विदेशी महिला जब कभी घर से बाहर जाती तो अपनी यात्रा के दौरान वह अक्सर इस्तेमाल किए फल-फ्रूट के बीज और आम व जामुन की गुठलियां प्लास्टिक की एक थैली में लपेटकर ले जाती थी और किसी हाइवे पर अपनी कार से उतर कर वह उन साफ-सुथरे बीजों को किसी खाली पड़ी जगह पर या खेत में फेंक देती थी, यह सोचकर कि मानसून के मौसम यही बीज फिर से फल बनकर किसी के काम आयेगें। मैं ऐसी अच्छी सोच को भी किसी इबादत से कम नहीं मानता। इसमें आपका कोई पैसा नहीं लगता लेकिन जो सकून मिलता है वह ईश्वर की आराधना से कम नहीं है। इसीलिए किसी ने ठीक ही कहा कि - ‘जरूरी नहीं कि हर वक्त लबो पे खुदा का नाम आए’ वो लम्हा भी इबादत का होता है जब इंसा किसी के काम आए।’



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