बच्चे के सुखी जीवन के लिए घर का शाँत वातावरण जरूरी

बच्चे के सुखी जीवन के लिए घर का शाँत वातावरण जरूरी
                                             
महान व्यक्ति के व्यक्तित्व की नींव उसके बाल्यकाल में ही पड़ जाती है। जन्म के पष्चात जैसा मां-बाप बनाना चाहते हैं वैसा ही बच्चा बन सकता हैं। कौन मां-बाप नहीं चाहते कि उनका बालक बड़ा होकर सुयोग्य बने तथा सुखी और सम्पन्न जीवन बिताऐ। किन्तु कितने मां-बाप यह समझते है कि बच्चे की सफलता उनको बचपन में मिली षिक्षा दीक्षा पर ही निर्भर करती है। कितने मां-बाप यह जानते है कि बच्चों को सुख समृद्धि में घर का अच्छा वातावरण सहयोग देता हैं।
बच्चा तो कुम्हार की मिट्टी के समान कोमल होता है जिसे मां-बाप अपने चातुर्थ तथा कौषल से कोई भी रूप दे सकते हैं। जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पाठ बच्चा घर की पाठषाला में ही सीखता है। उसके चरित्र निर्माण की नींव डालने वाली प्रथम आचार्या उसकी अपनी मां होती हैं। मैक्यूगल के अनुसार चरित्र मनुश्य के स्थाई भावों का पुनः हैं। इन्हीं की नींव पर मनुश्य के सारे कार्य निर्भर करते हैं। वैसे तो माता-पिता दोनों का ही बालक पर प्रभाव पड़ता है किन्तु निष्चय ही इसमें मां का अधिक भाग रहता है। बच्चा समय के साथ महिला स्वरूप मां का ही देखता हैं। बच्चे की मनोभूमि अत्यन्त ग्रहणषील होती है। अतः अनजाने में ही वह मां के गुण अवगुण दोनों ग्रहण कर लेता है। महात्मा गांधी की मां अत्यंत धर्मनिश्ठ महिला थी। इतिहास प्रसि़द्ध वीर हग्मीर की मां के साहस से कौन अपरिचित होगा। आत्मबल से परिपूर्ण षकुन्तला का पुत्र षेर के मुख में हाथ डाल कर उसके दांत गिन लेता था। कौन नहीं जानता कि वीर षिवाजी की माता ने अत्यंत चातुर्य तथा कौषल से अपने पुत्र में वीरोचित्त गुणों की नींव डाली थी। इसके विपरित इतिहास ऐसे उदाहरणों में यह बात है कि चरित्रहीन मां का बालक अच्छे गुणों से वंचित रह जाता है।
जिस प्रकार उपयुक्त जल तथा मिट्टी पाकर एक स्वरूप बीज पनप कर फूल उठता है तथा एक सुन्दर फल या फूल का रूप धारण करके सबको मन मोहता है। उसी प्रकार अच्छे वातावरण में बच्चा हश्ट तथा विचारवान बनता है। जिस घर में हर घड़ी कलह रहती है वहां बच्चा घबरा जाता है तथा माता-पिता के प्रति कटु हो उठता है। उसका मनोबल क्षीण होने लगता है। वह विष्वास रहित व अनुषासनहीन होकर उद्दंड व्यवहार करने लगाता है इसी प्रकार जिस गृहस्थी में मां-बाप अपने आचरण के प्रति लापरवाह होते हैं तथा मक्कारी और धोखेबाजी से अपना स्वार्थ साधने में संकोच नहीं करते, वहां बच्चे भी चालाक तथा झूठे हो जाते हैं। प्रसिद्ध बाल मनोवैज्ञानिक आर्थर डिंगले के अनुसार बालक वहीं सीखता है जो आप करते हैं, वह नहीं जो आप कहते हैं। बच्चे सदा माता पिता की तरह व्यवहार करने की चेश्टा करते हैं। उन्हीं के अनुसार बोलते हैं, खाते-पीते हैं तथा वस्त्र धारण करते हैं। बालक के अबोध मस्तिश्क का आदर्ष उसके अपने माता-पिता तथा परिवार के सदस्य ही होते हैं। अतः मां-बाप को चाहिए कि वह बच्चों के सम्मुख ऐसे काम न करे जिनको ठीक न समझते हो। समय पर काम करना, सवेरे उठना, साफ रहना, मीठी बोली बोलना, दूसरे की मदद करना, यह सब आदतें मां-बाप द्वारा करने पर अनुकरण प्रकृति के सहारे आसानी से बच्चों में यह डलवाई जा सकती है। स्वयं सिगरेट पीने वाला पिता यदि चाहे कि बच्चा सिगरेट से दूर रहे तो यह कैसे संभव होगा। यही झूठ बोलने वाले मां-बाप की बात है। बालक को कुछ भी कहने से पहले आत्मनिरीक्षण अत्यंत आवष्यक होता है। बालक अविकसित मस्तिश्क में भले बुरे का ज्ञान नहीं होता है। अच्छी या बुरी आदतें बच्चा स्कूल जाने से पूर्व ही घर की पाठषाला में सीख चुका होता है। कुछ लोग बचपन में बच्चे को अच्छा बनाने में जब असफल रहते हैं तो उनकी षैतानी से अपना पीछा छुड़ाने के लिए उन्हें घर से दूर छात्रावास में भेजकर अपने कर्तव्य से मुक्त हो जाते हैं। मेरे विचार से यह ठीक नहीं है। जो सुधार मां-बाप अपने प्यार से बच्चे में ला सकते हैं। वह छात्रावास का कठोर अनुषासन कैसे सीखा पाएगा। हो सकता है छात्रावास में बच्चा दंड के भय से षान्त रहने लगे व ऊपर से वह अपने को सभ्य बना ले लेकिन यह आवष्यक नही कि वह अपनी गलती समझ कर हमेषा के लिए सुधार कर जाए। अतः आवष्यकता पड़ने पर बच्चे को छात्रावास में जरूर पढ़ाना चाहिए किन्तु इस प्रकार पीछा छुड़ाने के लिए नहीं।
यहां एक और बात भी ध्यान देने की है, बच्चे को हम अच्छा बनाना चाहते हैं पर इच्छाओं के नाम पर ही प्रत्येक बाप अपनी इच्छा ही लादते हैं। हम अपने पैमाने से बालक का व्यवहार नापते हैं। जो हमें बुरा लगता है बालक को उससे दूर रखते हैं। इस तरह अपने विचार बरबस उनमें ठूसकर समझते हैं कि हम अच्छा कर रहे हैं। यह हमारी भूल है। बालक की साधारण इच्छा को समझे-बूझे डांट कर दमन कर देना उनके अव्यक्त मन में ग्रन्थि डाल देना होगा। जरूरी नहीं है कि डाक्टर का बेटा मेडिकल में ही रूचि ले। हो सकता है कि उसमें कला के प्रति झुकाव हो। इसी तरह एक कलाकार का बालक नामी वकील बन सकता है। इसलिए मां-बाप को बालक की इच्छा समझ कर उसे अच्छे कार्यों की तरफ मोड़ना चाहिए।

  अतः बच्चों को अधिक डांटना डपटना ठीक नहीं है। इससे बच्चा ढीठ हो जाता है। प्यार तथा सहयोग से वह सबकुछ समझने को तैयार रहता है पर जोर जबरदस्ती के आगे विद्रोह कर बैठता है। तब वह अनुषासनहीन तथा निराषावादी बन जाता है। याद रखिये कि स्नेहपूर्ण वातावरण में ही बच्चा प्रफुल्ल रह सकता है तथा कहना मानने का प्रयत्न करता है। हमें चाहिए कि समय-समय पर बालक के अच्छे कार्यों की प्रषंसा करते रहें। इससे उन्हें षक्ति मिलती है व प्रोत्साहन प्राप्त होता है। कई बार अत्याधिक लाड़ के कारण भी मां-बाप बच्चे का जीवन बिगाड़ देते हैं। कई बार लापरवाही के कारण बच्चे बिगड़ जाते हैं तथा कोई बच्चा दूसरे बच्चे की चीज पसन्द आने पर चुपचाप अपने घर ले आये व मां उसे देख कर भी अनदेखा कर दे तो बालक धीरे-धीरे और चीजें उठाने लगेगा तथा चोर बन जायेगा। यदि प्रारंभ में ही मां उसे स्नेह से बता दे कि दूसरों की चीज चुपचाप उठाकर नहीं लानी चाहिए और स्वयं भी ऐसा कभी नहीं करे तो नादान बालक एक गंभीर दुर्गुण से बच सकता है। कुछ माताएं अपने बच्चे के कसूर को समझ कर भी दूसरे से कमर कस के लड़ने को तैयार रहती है। ऐसी मां का बच्चा गलत सही व्यवहार का अंतर नहीं समझ पाता। बच्चों को साहसी बनाने के लिए छोटी-छोटी महात्माओं तथा वीर पुरूशों की कहानियां सुनानी चाहिए। बच्चों को कहानी सुनने में बड़ा आनन्द आता है। हमारे यहां बाल साहित्य में पंचतंत्र की कहानियां हमारे नन्हें मुन्नों के लिए अत्यंत उपयोगी है। यह छोटे-छोटे बच्चों में बड़े-बडे़ गुण अनजाने में ही भर देती हैं।

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